आतंकवाद पर खामोश सेकुलर सुल्तान

कुमार जीव कश्मीर में बौद्धमत की शिक्षा प्राप्त कर एक हजार साल पहले चीन गये थे। उनकी माता कश्मीरी ब्राह्मण थीं और पिता काश्गर; वर्तमान सिंज्योग के नगरद्ध निवासी थे। यह अद्भुत संयोग है कि काश्गर, जो आज उइगर मुस्लिम क्षेत्र है, चीन में 'काशी' कहा जाता है।
वहां के हवाई अड्डे पर उतरते ही अंग्रेंजी में के-ए-एस-एच-आई लिखा देखा तो चौंक गया था। रेल टिकट, बाजार दफ्तर सब जगह काशी ही लिखा रहता है। कुमार जीव का प्रभाव? जो पता न हो उस बारे में कयास नहीं लगाना चाहिए।
हाल में कुमार जीव इसलिये याद आये कि भारत से शत्रुता दिखा रहा चीन आज भी अपनी ज्ञान परम्परा में कुमार जीव को महत्व के साथ बताता है। उन्हें तंगवंश के सम्राट ने चीन के शिक्षक या राजगुरू की पदवी से विभूषित किया था। कुमार जीव ने चीन में बौद्ध ग्रन्थों के अनुवाद की असाधारण पद्धति विकसित की थी।

जो चीन कुमार जीव की ज्ञान-परम्परा का आज भी ससम्मान उल्लेख करता है, वह भारत से शत्रुता क्यों निभा रहा है? काश्गर में उइगर सहित्यकार मिले तो उन्होंने बताया, कम्यूनिस्ट चीन की सभ्यता और ज्ञान परम्परा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वे आस्थाहीन राजनीतिक सत्ता की निर्ममता के वाहक है। इसलिये कुमार जीव का उल्लेख उन्हे अपने अतीत के इतिहास से सातत्य बनाए रखने का अवसर मात्र देता है। कुमार जीव के मूल देश से वे वैसे भी जुड़ना नहीं चाहते क्योंकि कुमार जीव उनके लिये चीनी विद्वान है। भारतीय नहीं। उइगर मूलतः पूर्वो तुर्किस्तानी हैं और गत द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चीनी प्रभुत्व में लाये गये। हालांकि चीन वहां अपना दावा कई शताब्दी पूर्व का बताता है। इसी क्षेत्र में मोर स्तूप और तुरपन की बौद्ध गुफाएं ठीक अजन्ता की प्रतिकृतियां, आज भी विश्व भर से सैलानी आकृष्ट करती है। पर मुस्लिम बहुल होने के कारण यह क्षेत्र चीन के लिए आतंकवाद का सरदर्द भी बना है।
कुमार जीव, कश्यप, मातंग और समंतभद्र जैसे संस्कृत नाम; मूल भारतीय भिक्षुद्ध बीजिंग में भी सुनाई दिए। चीन के बौद्ध अतीत पर जो पुस्तकें कम्युनिस्ट सरकार ने छापी हैं उनमें इनके मूल संस्कृत नाम दिए हैं पर उनके चित्र चीनी शैली के हो गये हैं। बीजिंग में एक वाक्य अक्सर सुनने को मिलता है - भारत और चीन दो विश्व की महान सभ्यताएं है, दोनों के बीच हजारों वर्ष पुराने सम्बंध हैं। हजार वर्ष में कोई झगड़ा नहीं हुआ। सिवाय एक 1962 में। सिर्फ उस एक घटना को हजार सालों पर क्यों छाने दें? मैंने प्रत्युत्तर में कहा था हजार साल इसलिए झगड़ा नहीं हुआ कि उन वर्षों में यहां कम्युनिस्ट नहीं थे। कम्युनिस्टों के आने के बाद ही युद्ध हुआ, पहले नहीं। वे चुप हो गये।
जिन कम्युनिस्टों के नेतृत्व में चीन में चार करोड़ से अधिक निर्दोष-निष्पाप नागरिक अत्याचार और बौद्धिक दमन का शिकार बनाकर मार डाले गए हों और जिनके नेता माओ को अपना नेता मानकर उसके नाम पर संगठन चलाने वाले नेपाल तथा भारत में हजारों नागरिकों की हत्या के लिये जिम्मेदार आतंकवादी मुहिम को किसी क्रान्ति के नाम चला रहे हों, उनसे कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे कुमार जीव के ज्ञानोदय से कोई तादात्म्य रखेगें? आखिर कुमार जीव की बौद्ध सम्पदा को तिरस्कृत करने के बाद ही तो कम्युनिस्ट बना जा सकेगा।
स्टालिन भी कम्युनिस्ट थे, उनके राज में एक करोड़ से अधिक रूसी मारे गये। लाखों साइबेरिया और गुलाग के श्रम शिविरों में निर्वासित रहे। यह बर्बरता वामपंथी विरासत का अनिवार्य बोझ है। कम्बोडिया में पोलपोट कम्युनिस्ट शासक हुए, वहां 32 लाख से ज्यादा कम्बोडियाई नागरिक लोमहर्षक यातनाओं के दौर से गुजार कर मार डाले गए जिनके कंकाल आज भी इधर-उधर दबे मिल जाते हैं। सिएम रीप में वह यातना गृह देख कर आने के बाद कई रात सोना मुश्किल हुआ था। लोहे के पलंग से जंजीरों से बांध अपने ही देश के उन नागरिकों को तड़पा-तड़पाकर, घिसटा-घिसटाकर मृत्यु के द्वार तक पहुंचाया जाता था जो पोलपोट के कम्युनिस्ट शासन से विमत रखते थे। जो उनकी बात न माने, हां में हां न मिलाये, क्रान्ति का लाल झंडा न थामे, उसे आमानुषिक दंड मिलेगा।
भारत के माओवादी भी तो यही कर रहे हैं। जब यह पोस्ट लिख रहा था खबर छपी कि माओवादियों ने 16 निर्दोष भारतीय नागरिक मार दिए। यह भारतीय अनाथ और परित्यक्त कबाड़ नहीं थे। भारतीय प्रजा थे। उनकी मांएं भी वैसी ही हैं जो इस भारत में जन्मे माओ के भक्तों की हैं पर माओवादी होने का अर्थ है कुमार जीव की करूणामयी परम्परा की हत्या के अभिषेक से रंगे हथियार उठाना। इनमें और 26/11 के कसाब में क्या फर्क है? ये दोनों ही किसी अनजान अपरिचित, निर्दोष और निहत्थे व्यक्ति को अपने शस्त्रों से अचानक मार कर 'वीर', 'क्रान्तिकारी', 'समाज परिवर्तनकारी', 'उद्धारक', 'गाजी', 'मुजाहिद', वगैरह-वगैरह कहाते हैं। कोई 'कम्युनिस्ट स्वर्ग' में तैरता है तो कोई जन्नत में हूरों से मिलने के सपने लिए हत्या करता घूमता है। इसलिए एक ने बामियान में पत्थर में तराशे बुद्ध को अपने बमों का निशाना बनाया था तो दूसरा कुमार जीव की करुणा को अनिष्टजीवी कम्युनिस्ट बाना पहनाकर 'वीर' बन रहा है।
अब हैरत क्यों हो कि इन रक्तमार्गियों के भी वकील दिल्ली की सेकुलर सल्तनत में मुखर दिखते हैं। इसे आत्मपीड़ा और आत्मदलन में आनंद की दास मानसिकता कहते हैं - उपनिवेशवाद और परकीय दासता की अतिशयता ऐसे वर्ग को जन्म देती है जो मानसिक रूप से इतनी दमित और प्राणहीन हो चुकी होती है कि वह अपनी काया में प्रविष्ट परकीय तत्व को ही स्वत्व का स्पंदन मानकर अपने दमन, दलन और दासत्व को अपने लिए सर्वाधिक उपयुक्त पुरस्कार तथा जीवन का परमलक्ष्य मानने लगती है। भारत में इसी परकीय दास मानस ने हिन्दु शब्द और उससे जुड़े किसी भी शब्द में सकारात्मकता को हेयता पर्याय बनाने में कोई प्रयास बाकी नहीं छोड़ा और प्रकारान्तर में वे इतने आगे बढ़ गये कि देश के साथ ही छल करने लगे।
62 के चीनी हमले के समय देश विरोध के जुर्म में नेहरू सरकार द्वारा जो जेल भेजे गए, उनके एक साथी केरल के पिनारी विजयन ने कुछ समय पहले कहा ही था कि 62 में सैनिको के प्रति समर्थन की मांग करने के अपराध में उन्हें पार्टी नेतृत्व ने दूसरे जिले में भेजने की सजा दी थी। ये लोग आज भी ऐसा मौका नहीं छोड़ते जब देश के सुरक्षा सैनिकों पर शाब्दिक या सशस्त्र हमले किए जा सकें।
जम्मू में रुखसाना ने शानदार बहादुरी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लश्करे तैयबा का आतंकवादी कुल्हाड़ी से मार डाला तो दिल्ली के सेकुलर घरानों में चुप्पी रही। मगर शोपियां जैसा मुद्दा मिले, जब सुरक्षा सैनिकों पर हमले किए जा सकें तो इनकी मुखरता देखने के लायक होती है। उसी समय दो मुस्लिम युवतियों को तालिबानों ने शोपियां के निकट बर्बरता से मार डाला। किसी ने उनके बारे में प्रतिरोध की आवाज उठाई? इसलिए नहीं उठाई कि तब आतंकवादियों के खिलाफ बोलना पड़ता जो सेकुलर सुल्तानों के चित्त को भाता नहीं, सो चुप रहे।
रुखसाना आपा हमारी नायक हैं। उनके बारे किसी भी प्रशंसा को अतिरंजना नहीं मानना चाहिये। सिंगल वुमन्स सलवा जुड़ुम बनी रुखसाना एक ऐसे समय में जब जम्मू-कश्मीर में तिरंगे का अधिनायकत्व; 'जन-गन-मन-अधिनायक जय हे' सिकुड़ता दिखता है- रुखसाना हम सब की आपा बन गयी। जय हो। कुमार जीव के साथ बात शुरू की थी। वही लीक हमें चीन के साथ जोड़ सकती है। कम्युनिस्ट अनिष्टवाद नहीं।
चीनी खतरे को महज अमरीकी या अमरीका परस्तों का प्रोपगन्डा कहना 62 को दोहराना होगा।
Navbharat times.com

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