कितने बदल गए संघ के बंधु


विजयादशमी को अधर्म पर धर्म की जीत, असत्य पर सत्य की जीत और बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसी विजयादशमी का भारतीय राजनीति में भी ऐतिहासिक महत्व है। आजादी से पहले 1925 में विजयादशमी के दिन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई, जिसने देश की राजनीति और समाज को निरंतर प्रभावित किया है।
अँगरेजीदाँ नेता अरुण शौरी ने तो पिछले दिनों भाजपा में विद्रोह का ढोल बजाते हुए सलाह दे दी कि संघ ही पूरी तरह भारतीय जनता पार्टी को निगल ले। नए सरसंघ चालक मोहन भागवत ने इस सलाह को तो नहीं माना, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दीक्षित भाजपाइयों को 'पंक्तिबद्ध', 'करबद्ध', चरण वंदन सहित कवायद के लिए बाध्य कर दिया। विजयादशमी से पहले ही 'शक्ति प्रदर्शन' हो गया।
महायोद्धा स्वयंसेवकों ने सार्वजनिक रूप से कभी हँसते, कभी गुस्साते, कभी रुदन करते अपने दुःख-सुख, आशा-निराशा का प्रदर्शन किया, लेकिन विभिन्न शिविरों में लौटने के बाद राजनीतिक खिचड़ी अलग-अलग पक रही है।
तभी तो संघ और उससे जुड़ी जनसंघ, जनता पार्टी में अल्पकालिक विलय के दौरान एक घटक रूप में चलती पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बजरंग दल इत्यादि को जानने-समझने वालों के मुँह से सुनाई देता है-"अरे कितने बदल गए संघ के ये बंधु-स्वयंसेवक।"
यों हिन्दी की अपेक्षा अँगरेजी, संघ मुख्यालय के रसोईघर की कढ़ी-चावल की अपेक्षा चाइनीज नुडल्स-फिश करी, "गुरुजी" काल के प्रचारकों की बस यात्रा की अपेक्षा पायलट का प्रशिक्षण ले हवाई यात्रा को तरजीह देने वाले संघ के प्रभावशाली नेता इस "बदलाव" को समय के साथ उचित, उपयोगी, अपरिहार्य मानते हैं।
पता नहीं उनके तर्कों से सरसंघ चालक कितने सहमत या संतुष्ट हैं, लेकिन संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और गुरु गोलवलकर के जीवन तथा आदर्शों से अतिप्रभावित पुराने प्रचारक और स्वयंसेवक व्यथित होकर कहीं किनारे पड़े दिख रहे हैं।
जीवनभर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की "प्रार्थना" गाने वाले स्वयंसेवक लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी और राजनाथसिंह संघ के कोपभाजन बने हुए हैं, जबकि अरुण शौरी और जसवंतसिंह या संघ में ही बैठे हुए कुछ तिकड़मबाज चरित्रहीन प्रचारक संघ के शीर्ष नेतृत्व की कृपा और आशीर्वाद का रस ग्रहण कर रहे हैं। संघ ने अंदर और बाहर बहुत छूट दे दी है। इसे उदारता कहा जाए या मजबूरी अथवा पतन?
क्या यह वही संघ है जिसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने 1933 के घोषणा-पत्र में कहा था- "आपको जब भी प्रतीत हो कि मेरी अयोग्यता के कारण संघ को क्षति हो रही है तो आप मेरे स्थान पर दूसरे योग्य व्यक्ति को स्थापित करने के लिए स्वतंत्र हैं। संघ चालक की आज्ञा का पालन स्वयंसेवकों द्वारा बिना किसी अगर-मगर के होना अनुशासन एवं कार्य प्रगति के लिए आवश्यक है।

नाक से भारी नथ- इस स्थिति को संघ कभी उत्पन्न नहीं होने देगा। लेकिन अब तो संघ और उससे संबद्ध विभिन्न संगठनों में "सोने-हीरे-मोती जड़ित नथों या मुकुटों" वाले ही भारी पड़ रहे हैं। संघ ने अपने स्वयंसेवकों को जीवनपर्यंत व्यक्तिगत आकांक्षाओं से अधिक राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं को महत्व देने का पाठ पढ़ाया, लेकिन विभिन्न संगठनों में सक्रिय या शीर्ष पर बैठे "स्वयंसेवक" क्या व्यक्तिगत आकांक्षाओं तथा स्वार्थों से ऊपर उठ पा रहे हैं?
गुरु गोलवलकर ने 11 जून, 1970 को दिल्लीClick here to see more news from this city में कहा था-"विश्वभर के लोगों को एकत्रित करने के प्रयास में दौड़ते रहने से कहीं अधिक अच्छा है कि हम पहले अपने घर को सुव्यवस्थित कर लें। जो अपने घर को सुव्यवस्थित नहीं करते, उनमें शक्ति नहीं रहती, न वे प्रभाव रख पाते हैं और न ही विश्व के विशाल वर्गों में एकता निर्माण की क्षमता ही उनमें होती है। उनके लिए यह सब कर पाना असंभव है।"

आज के संदर्भ में क्या संघ से जुड़ रहे नेता अपना "घर" और "परिवार" भी सुव्यवस्थित कर पा रहे हैं? शैक्षणिक या आदिवासी क्षेत्र में सक्रिय लोग भले ही अपने स्तर पर समर्पित भाव से सेवा-कार्य कर रहे हों, लेकिन सत्ता और समाज को दिशा देने का बीड़ा उठाए कितने पूर्व प्रचारक-स्वयंसेवक अपने संगठन, सरकार, प्रदेश या देश को सुव्यवस्थित कर पा रहे हैं?

संघ के नेता इस बात से प्रसन्न हो सकते हैं कि उसका प्रभाव शहरों तक सीमित न रहकर हजारों गाँवों तक पहुँचा है। हिंदुत्व की विचारधारा के लिए देश के बाहर बसे हुए हिंदुस्तानियों से अधिक समर्थन मिल रहा है।

लगभग 12 वर्ष पहले 4 अक्टूबर, 1997 को संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक प्रो. राजेंद्रसिंह (रज्जू भैया) ने एक इंटरव्यू में कहा था- "राजनीति में जो लोग काम करते हैं, वे हमेशा तोड़ पैदा करते हैं। यदि तोड़ पैदा नहीं करेंगे तो वोट कैसे मिलेंगे। जातिवाद-क्षेत्रवाद बढ़ा है। यह दुर्भाग्य की बात है कि देश के विभाजन के बाद हिन्दुत्व का भाव जितना बढ़ना चाहिए था, उतना नहीं बढ़ा।

जिन दिनों राम मंदिर का आंदोलन था, तब सारे हिन्दू समाज में बड़ी एकता दिखाई दी। हमारा ध्यान ऐसे मुद्दों पर है, जिनसे हिन्दुत्व की भावना बढ़े। अभी हमने हिन्दी भाषा का प्रश्न उठाया है। राम मंदिर का मुद्दा भी बना हुआ है। स्वदेशी के साथ कुछ अन्य मुद्दे उठाए हैं।" एक दशक बाद इन मुद्दों पर संघ-भाजपा से जुड़े लोग एकजुट होकर क्या कुछ कर पा रहे हैं?

भाजपाई नेता दिशा-निर्देश के लिए संघ के दरवाजे पर माथा टेकने पहुँचते हैं, लेकिन वे जातिवाद-क्षेत्रवाद को कम करने की बजाय उसके बल पर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता में आने के बावजूद हिन्दी को सर्वोच्च स्थान दिलाने के लिए "समर्पित स्वयंसेवकों" ने कितने प्रयास किए या संघ ने उन्हें कितने दिशा-निर्देश दिए? स्वदेशी की बात दूर रही विदेशी पूँजी लगवाने, लाने और पाने में बड़े पैमाने पर स्वयंसेवक सक्रिय दिखाई देते रहे हैं। पूँजी ला सकने वालों पर क्या संघ या विश्व हिन्दू परिषद का वरदहस्त नहीं रहा है?

बहरहाल, संघ के नेता इस बात से प्रसन्न हो सकते हैं कि उसका प्रभाव शहरों तक सीमित न रहकर हजारों गाँवों तक पहुँचा है। हिंदुत्व की विचारधारा के लिए देश के बाहर बसे हुए हिंदुस्तानियों से अधिक समर्थन मिल रहा है। संघ के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी रही संस्थाओं के अलावा नए-नए नारों से पचासों संस्थाएँ हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सक्रिय हो गई हैं।

नए-पुराने स्वयंसेवक सरकारी सेवा में हों या निजी सेवा में, उनके साथ संघ का संबंध बना रहता है। प्रारंभ से ही संघ के स्वयंसेवकों का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं रखा जाता। विशेष रूप से प्रतिबंध लगने की परिस्थितियों से निपटने के अनुभवों के बाद संघ अधिक सतर्कता के साथ अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाता रहा है। घोषित सिद्धांत और आदर्श नहीं बदले हैं। लेकिन प्रचारकों और स्वयंसेवकों के रंग-ढंग, दशा-दिशा में बहुत बदलाव आया है और आने वाले समय में संभवतः अधिक बदला रूप भी दिखेगा।


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