जागो स्वयंसेवक जागो- दूसरा भाग

भाजपा ही नहीं संघ को भी कट्टरपंथी तत्वों से पिंड छुड़ाना होगा

- नकारात्मक खबर के बारे में

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भाजपा में घमासान तो कुछ और दिन चलेगा। लेकिन पार्टी का कार्यकारिणी की बैठक से आघातकारी चुनावी हार के बाद पड़ रहे दबाव खत्म होने चाहिए। चुनाव में हार के बाद लालकृष्ण आडवाणी के फिसड्डी घोड़े ही पार्टी की मूल विचारधारा पर ही सवाल उठाने लगे थे। शुरू में आडवाणी पार्टी के भीतर चल रही खुली सिर-फुटव्वल के कारण अभी पार्टी की कार्यकारिणी का सामना करने से बचना चाहते थे।
राजनाथ सिंह को आखिरी समय तक मनाने की कोशिश की गई कि वह कार्यकारिणी की बैठक टाल दें। लेकिन अंतत पार्टी पर पड़ रहे अनावश्यक दबाव को खत्म करने में कार्यकारिणी की अहम भूमिका रही। अब यह साफ हो गया है कि भाजपा हिंदुत्व की विचारधारा से डिगेगी नहीं। हालांकि आडवाणी की रहनुमाई में भाजपा पिछले बीस साल से देश को यह नहीं समझा पाई कि वह किस तरह का हिंदुत्व चाहते हैं। भाजपा अपने मुद्दों को सिर्फ इस लोकसभा चुनाव में जनता तक पहुंचाने में नाकाम नहीं रही, अलबत्ता विचारधारा को समझाने में भी कामयाब नहीं रही।

आडवाणी, राजनाथ सिंह और कार्यकारिणी के राजनीतिक प्रस्ताव में यह साफ किया गया है कि वह 11 दिसंबर,1995 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय किए गए हिंदुत्व में ही विश्वास रखती है। लेकिन पार्टी इस हिंदुत्व पर विश्वास रखने के बावजूद उस समय कट्रपंथी हिंदू धर्म पर आधारित पार्टी दिखने लगती है, जब अन्य धर्मावलंबियों के प्रति असहिष्णु दिखती है।

ताजा उदाहरण वरुण गांधी की ओर से अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए प्रकट की गई घृणा की भावना, संघ परिवार से संगठन विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल की ओर से प्रकट की जाने वाली मुस्लिम विरोधी कट्टरपंथी भावनाएं और रामसेना जैसे संगठनों की गुंडागर्दी पर भाजपा नेताओं की चुप्पी से भ्रम फैलता है।

अब जबकि भाजपा ने कार्यकारिणी में अपने हिंदुत्व की परिभाषा तय कर दी है तो अब उसे खुल कर इन कट्टरपंथी संगठनों और तत्वों के खिलाफ अपना स्टैंड भी साफ करना चाहिए। संघ भी मौटे तौर पर इसी हिंदुत्व को मानता है, लेकिन उसके संगठन विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल हिंदुत्व की विशाल हृदय वाली परिभाषा से कोसों दूर हैं। भाजपा ही नहीं संघ को भी कट्टरपंथी तत्वों से पिंड छुड़ाना होगा।

भाजपा ने यह भी साफ कर दिया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रिश्ता तोड़ने का सवाल ही नहीं। आडवाणी के सुधींद्र कुलकर्णी जैसे रणनीतिकारों की ओर से भाजपा को संघ से नाता तोड़ने की सीख राजनीतिक अपरिपक्वता का ही सबूत था। आडवाणी को अपने इस रणनीतिकार से जिन्ना प्रकरण के बाद ही हमेशा के लिए पल्ला झाड़ लेना चाहिए था, क्योंकि उस समय भी आडवाणी की संघ से दूरी वामपंथी पृष्ठभूमि के कुलकर्णी के कारण ही हुई थी।

भाजपा ने 198 0 में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी से अलग हो कर स्पष्ट कर दिया था कि जनसंघ पृष्ठभूमि के लोग संघ से अलग नहीं हो सकते। अचानक वामपंथी से भाजपा प्रेमी बनने वाले कुलकर्णी को शायद यह बात उस समय समझ नहीं आई होगी, जब वह आडवाणी के राम रथ का पहिया बन कर घूमे थे।

भाजपा नेताओं की समस्या विचारधारा नहीं, अलबता उनके स्टाफरों का सलाहकार बन जाना है। राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी आडवाणी ही इस समस्या का शिकार नहीं हुए, राजनाथ सिंह भी इस समस्या के गंभीर शिकार है। जिस तरह आडवाणी ने इस लोकसभा चुनाव में चुनावी रणनीति अपने व्यक्तिगत स्टाफ को सौंप कर पार्टी को किनारे कर दिया था। उसी तरह राजनाथ ंिसंह भी राजनीतिक प्रस्तावों, अपने राजनीतिक भाषणों और संगठनात्मक रणनीति में पार्टी के मंझे नेताओं और कार्यकर्ताओं की जगह अपने भरोसेमंद स्टाफरों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। पार्टी के नेताओं में यह नाराजगी साफ झलकने लगी है कि उनके बड़े नेता अपने भरोसेमंद गैर राजनीतिक स्टाफरों को नेता बनाने पर तुले हुए हैं।

भाजपा की समस्या हिंदुत्व, आरएसएस की विचारधारा से ज्यादा आपसी गुटबाजी है। इस गुटबाजी के कारण पार्टी पूरी तरह दो फाड़ हो चुकी है। यह बात कार्यकारिणी में शीशे की तरह साफ हो गई। आडवाणी खेमे ने चुनाव में जिस तरह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और संगठन को दरकिनार किया, उसका विस्फोट जसवंत सिंह, यशवंत सिंहा, अरुण शौरी, मुख्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन के खुल कर सामने आने से हुआ है। भले ही पार्टी के किसी नेता के भाषण या राजनीतिक प्रस्ताव में जाहिर नहीं हुई, लेकिन कार्यकारिणी में यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि लोकसभा चुनाव को एक व्यक्ति के इर्दगिर्द लड़ना पार्टी की भारी भूल थी।

इन सब बातों के बावजूद कार्यकारिणी से यह साफ उभर कर आया कि आडवाणी अभी भी पार्टी के ऐसे नेता हैं, जो हताश, निराश पार्टी को फिर से खड़ा करने और एकजुट रखने की क्षमता रखते हैं। आडवाणी के आखिरी संबोधन ने उन्हें फिर से पार्टी में बड़े कद के नेता के रूप में स्थापित किया है। अब जबकि आने वाले महीनों में पार्टी में नेतृत्व की लड़ाई और तेज होनी हैं तो उसमें आडवाणी की भूमिका और अहम हो जाएगी।

कार्यकारिणी में नेतृत्व को लेकर विभाजन के बावजूद ज्यादातर कार्यकारिणी के सदस्यों का मानना है कि आडवाणी के इस समय सक्रिय राजनीति से पीछे हटने पर भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं में भंयकर गृहयुद्ध होगा। राजनाथ सिंह को पार्टी अध्यक्ष बने चार साल हो चुके हैं, लेकिन उसके बावजूद कई वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें अपने नेता के रूप में कबूल नहीं किया। इसका सबूत कार्यकारिणी से अरुण जेटली की गैर हाजिरी है। आडवाणी ने जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता बना कर अपने और जेटली के लिए मुश्किलें खड़ी की हैं।

पार्टी में जब तक वैसा लोकतंत्र कायम नहीं होता जैसा कार्यकारिणी में दिखाई दिया, तब तक पार्टी जन-साधरण की पार्टी नहीं बन सकती। राजनाथ सिंह की लाख धमकियों के बावजूद तब तक अनुशासन कायम नहीं हो सकता, जब तक सांगठनिक और राजनीतिक नियुक्तियों में पारदर्शिता और सर्वसम्मति नहीं झलके। आडवाणी और राजनाथ के टकराव के कारण पिछले चार साल से यह अभाव खटकता रहा। अब पार्टी को नया सांगठनिक और चुनावी राजनीतिक ढ़ांचा खड़ा करना है।

इसमें आडवाणी की क्या भूमिका होगी, राजनाथ सिंह की क्या भूमिका होगी? वैंकेया, सुषमा और जेटली की क्या भूमिका होगी? पार्टी का भविष्य उसी पर तय होगा। के सुदर्शन के संघ प्रमुख पद से हटने के बाद अब पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में संघ का वैसा दखल नहीं रहेगा, जैसा पिछले सालों में रहा। जिन्ना प्रकरण के बाद सुदर्शन और आडवाणी में आए गतिरोध को तोड़ने में अहम भूमिका निभाने वाले मोहन भागवत भाजपा को लोकतांत्रिक ढंग से खड़ा करने के पक्ष में हैं।

तो आडवाणी प्रदेशों का दौरा करके 198 9 जैसा पार्टी का युवा ढांचा खड़ा करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। यह काम और कोई नहीं कर सकता है। अपने संन्यास से पहले एक बार खुद यह जिम्मेदारी अपने पर ओढ़ कर आडवाणी ने सही कदम उठाया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि आडवाणी ने ही एक समय में गोविंदाचार्य, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, वैंकेया नायडु को अपना महासचिव बना कर युवा टीम दी थी।

(लेखिका दैनिक भास्कर में वरिष्ठ विशेष संवाददाता हैं)


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