राजनीतिक नेतृत्व की कसौटी


तात्कालिक प्रतिक्रिया के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचने वालो को हम राजनेता तो कह सकते हैं, राजनीतिज्ञ नहीं। शायद यही कारण है कि जिस अभिमत को आज हम सार्थक समझते हैं वह एक-दो वर्ष में ही अपनी अहमियत खो देता है। आर्थिक नीतियों के निर्धारण में पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर आज तक यही होता रहा है। अब पंचवर्षीय योजना बेमानी लगने लगी है। केंद्र और राज्य सरकारें वार्षिक योजना का लक्ष्य निर्धारित करने लगी हैं। अब तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सौ दिन में ही कायापलट कर देने का लक्ष्य निर्धारित किया है। आर्थिक क्षेत्र में मान्य सैद्धातिक आस्थाओं पर हो रहे प्रयोग निरंतर असफल होते जा रहे हैं। समाजवादी व्यवस्था के नाम पर आर्थिक केंद्रीयकरण की असफलताओं ने 'मुक्त बाजार' का रास्ता पकड़ लिया है, जो संकट बढ़ाने वाला साबित हो रहा है। दुनिया के अनेक देशों के विपरीत यदि भारत की अर्थव्यवस्था धराशायी होने से बची हुई है तो इसका कारण है लोगों में बचत की आदत।
लोकसभा चुनाव के बाद 'नेतृत्व की आयु' का सवाल उछल रहा है। काग्रेस की सफलता के लिए राहुल गाधी को श्रेय देने की होड़ मच गई है। युवा पहलू ने तमाम दलों को झकझोर दिया है तथा उनके भीतर 'नेतृत्व' के सवाल को लेकर घमासान मच गया है। भाजपा ही नहीं, लौह आवरण में छिपी रहने वाली मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी इस आधी की चपेट में आ गई है। किसी भी चुनाव में सफलता-असफलता के अनेक कारण होते हैं। उनमें नेतृत्व भी एक मुद्दा है। इंदिरा गाधी ने पूर्वी पाकिस्तान को जब बाग्लादेश में बदल दिया तो देश की जनता उनकी दीवानी हो गई। एक बड़े विचारक राजनेता ने तो उन्हें दुर्गा तक कह डाला, लेकिन कुछ ही वर्ष बाद जब सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने आपातकाल लागू किया तो काग्रेस को पहली बार लोगों ने सत्ता से बाहर कर दिया। उस अभियान का नेतृत्व किसी 'युवा' ने नहीं किया था। सत्तर वर्ष से ऊपर की आयु के जयप्रकाश नारायण और दूसरी तरफ युवा उत्तराधिकारी के रूप में पेश किए गए आक्रामक संजय गाधी के बीच युवाओं ने जयप्रकाश नारायण के पीछे लामबंद होना बेहतर समझा। दोनों के आचरण की भिन्नता से लगाव और दुराव का भाव विकसित हुआ। महात्मा गाधी के बाद संपूर्ण देश को उठ खड़ा होने की किसी व्यक्ति ने प्रेरणा दी तो वह जयप्रकाश नारायण ही थे।
साठ के दशक में राममनोहर लोहिया केंद्रीय सत्ता के आलोचक के रूप में प्रगट हुए। उनके जीवनकाल में समाजवादी आदोलन से जुड़कर कितने ही युवाओं ने जेल की यातनाएं सही हैं। लोहिया और जयप्रकाश के बाद यदि किसी ने समाज को सत्ता परिवर्तन की सीमा तक उद्वेलित किया तो वह विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। उनके पीछे युवा वर्ग ने 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है' का नारा लगाते हुए तीन चौथाई से अधिक बहुमत वाली राजीव गाधी की सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह भी युवा नहीं थे, लेकिन जब उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए मंडल का पासा फेंका तो देश की तकदीर मानने वाले युवाओं ने उन्हें संसद में आने लायक नहीं समझा। इंदिरा गाधी 1980 में सत्ता में फिर से इसलिए लौट आईं, क्योंकि जनता पार्टी सरकार में स्वेच्छाचारी आचरण करने वालों के कारण विस्फोट हो गया। नेतृत्व के लिए आयु से अधिक आचरण का महत्व है,

इस बात को हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के जीवन पर दृष्टिपात कर समझ सकते हैं। डा. हेडगेवार ने कुछ किशोरों को एक मैदान में खेलने के लिए प्रेरित किया। उन किशोरों और डा. हेडगेवार की आयु में बहुत अंतर था।
उन्हीं में से कुछ युवक उनकी प्रेरणा से उच्च शिक्षा के लिए देश के अन्य शहरों में गए। उन युवकों की आयु 20 वर्ष के आसपास रही होगी। पढ़ाई में कीर्तिमान स्थापित करते हुए डन्होंने संघ के कार्य को भी विस्तारित किया। वे अपने पीछे हजारों स्वयंसेवकों को छोड़ गए। ऐसी कौन-सी बात थी जिसने युवाओं को अपने घर परिवार से दूर जाकर जीवनव्रती बनकर संघ कार्य करने के लिए प्रेरित किया। प्रेरणा मिली डा. हेडगेवार के आचरण से। गुरुजी जब संघ के सरसंघचालक बने तब वह केवल 36 वर्ष के थे। संघ में बहुत से लोग उनसे अनुभवी और ज्येष्ठ थे, लेकिन गुरुजी अपने आचरण के कारण निरंतर आस्था की प्रगाढ़ता बढ़ाते गए। डा. लोहिया या जयप्रकाश नारायण अथवा आजादी से पूर्व महात्मा गाधी ने लोगों को अपने आचरण से प्रेरित किया और देश का युवा इन वृद्धों के पीछे पागलपन की हद तक जाकर खड़ा होता रहा। इसलिए आज जब यह कहा जा रहा है कि युवा ही देश को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं तब हम आचरण के प्रभाव की महत्ता को गौण समझकर ही अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हैं। इस संबंध में भारतीय जनता पार्टी का उदाहरण दिया जा सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी तथा मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में भाजपा निरंतर बढ़ती रही। मतभेद रहा होगा, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति फोरम पर ही होती थी। जब से राजनाथ सिंह ने दायित्व संभाला है, उसका ह्रास होता जा रहा है। अनुशासन के लिए प्रसिद्ध नेता सड़कों पर उतर आए हैं और आचरण की शुद्धता के कारण 'औरों से अलग दल' के रूप में स्थापित संगठन के लोगों की आचरणशुचिता पर प्रश्नचिह्नं लगते जा रहे हैं।
आयु का अपना महत्व है। पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी को दायित्व संभालने के लिए तैयार करते रहना चाहिए। काग्रेस में नेतृत्व परिवार में रखने की परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है। उसके समान 'युवा नेतृत्व' की स्वीकृति का भाव अन्य दल पैदा नहीं कर सकते। यदि वे स्वीकृति का भाव पैदा करना चाहते हैं तो उन्हें गाधी, जयप्रकाश, लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय के आचरण से उभरी स्वीकृति का अनुसरण करना होगा। नेतृत्व और प्रेरणा के लिए आयु नहीं, आचरण का महत्व होता है।
[राजनाथ सिंह सूर्य: लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं
साभार - दैनिक जागरण

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