भारत की भौतिक उन्नति का मार्ग


भारत के सामने हमारे पूर्व राष्ष्ट्रपति श्री. अब्दुल कलाम ने 2020 तक विश्व की आर्थिक एवं सामरिक
महाशक्ति बनने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता केवल आनेवाली पीढ़ी में है ऐसा
मानकर वे बाल एवं युवकों को श्शिक्षा संस्थानों में जाकर प्रोत्साहित कर रहे हैं। किन्तु इस तरूणाई को सामुहिक
रीति से किस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए इस विष्षय में पर्याप्त मार्गदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। शासन में बैठा
राजकीय दल या विपक्ष दोनों केवल आनेवाले चुनाव तक की सोच रखते हैं। तात्कालिक सोच के श्शिकार
नौकरशाह केवल अपने कार्यकाल को चमकाने और उस आधार पर उँचा पद प्राप्त करने के जुगाड में लगे रहते
हैं। यही कारण है कि लगभग दो लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करने पर भी देश के नीति निर्धारकों एवं
योजनाओं को क्रियान्वित करने वाले तन्त्रा की नींद टूटी नहीं है। ऐसे में समाज के सभी घटकों को इस लक्ष्य
की प्राप्ति हेतु मार्ग निर्धारण के लिए आगे आना चाहिए।
विकसित देशों की कहानी-

विश्व के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो विश्व के 204 देशों को सामान्यतः तीन श्रेणियों में
विभाजित किया गया है। प्रथम श्रेणी का नाम है ‘ विकसित ’ दूसरी का ‘ विकसनशील ’ एवं तीसरी का ‘
अविकसित ’ रखा गया है। भारत विकसनशील देश्शों की श्रेणी में आता है। विकसित देशों की श्रेणी के अन्तर्गत
एक छोटा गट बना है, जिसका नाम है G8। ये आठ देश सर्वाधिक प्रगत देश माने जाते है। इनके नाम है-
अमेरिका, कैनडा, ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी, इटली, रशिया और जापान। इन देशों ने विज्ञान और तन्त्राज्ञान के आधार पर प्रगति की है। ये देश विश्व की मण्डी में नये-नये उत्पाद या तकनीक को बेचकर धनार्जन करते हैं।
उदाहरण के लिए
1. अमेरिका में सगणक का निर्माण हुआ। उसे चलाने के लिए मॅक्रोसॉफ्ट ने विन्डोज नामका
सॉफ्टवेयर विकसित किया। तत्पश्चात् अन्तरताने (इन्टरनेट) का अविष्कार किया। इन तीनों उत्पादों को
विश्व में सभी देशो को बेचकर अमेरिका ने अत्यधिक पैसा कमाया।
2. जापान ने इलेक्ट्रॉनिक्स और वाहनों के स्तरीय उत्पादों से विश्व के बाजार भर दिये। आज भी
‘सोनी’ ‘टोयोटा’ जैसे ब्रॅण्ड पूरे विश्व में अपनी धाक जमाये हुए हैं।
3. रशिया भारत को दीर्घकालसे शस्त्रों की आपूर्ति करता रहा है। चाहे पनडुब्बी हो या विमान वाहक
जलपोल, हम रशिया पर निर्भर हैं।
उपर्युक्त परिपेक्ष में यदि हम भारत का विचार करें तो प्रश्न उठता है कि हमने किन उत्पादों को बेचकर
पैसा कमाया। स्वतन्त्राता के पश्चात् हमने विज्ञान और गणित को मैट्रिक तक अनिवार्य विषय बनाया। इन
दोनों विषयों की भाषा अंग्रजी है ऐसा मान कर उसे अनिवार्य विषय के रूप में स्थापित किया। आज भारत के
१०% लोग अंग्रजी जानते हैं। हमने पर्याप्त मात्रा में तन्त्राज्ञ निर्माण किये हैं। किन्तु वैज्ञानिक कम ही उत्पन्न
कर पाये। इतनी पूर्वसिद्धता के पश्चात् भी हम ऐसी कोई वस्तु निर्माण नहीं कर पाये जिसे बेचने से हम धनवान
बन सकें। न हम विज्ञान के क्षेत्रा में कोई मौलिक संशोधन कर पाये। हर वर्ष विज्ञान की विविध शाखाओं में
नोबेल पुरस्कार वितरित किये जाते हैं। स्वतन्त्राता प्राप्ति के पश्चात् किसी भारतीय नागरिक को विज्ञान का
नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ। हम केवल पश्चिम की नकल उतारते हैं। किसी नकलची को परीक्षा में किसी
ने प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए देखा है? जो मूल पश्चिम का ज्ञान है उसमें उनका अग्रणी बने रहना स्वाभाविक
है। हमें उनके ज्ञान के आधार पर अग्रणी बनने के सपने को छोड़ देना चाहिए। क्या हमारे पास अपना भी
कुछ है?
भारतीय विज्ञान-
अंग्रेजों का भारत में पदार्पण होने के पूर्व भारत के विश्विद्यालयों में कुल 62 विषयों की पढ़ाई होती
थी। शिक्षा की भाषा संस्कृत होने के कारण इन विषयों के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जाते थे। संस्कृत भाषा
को आत्मसात करने पर हम इन ग्रन्थों को पढकर समझ सकेंगे। यदि हम ऐसा कर पायेंगे तो हमें विरासत में
मिले ज्ञान भण्डार के द्वार खुल जायेंगे। जब हम भारतीय विज्ञान, अर्थशास्त्रा, विधिशास्त्रा की बात करते हैं तो
लोग कहते हैं कि- ‘मान लिया कि भारत का ज्ञान क्षेत्रा पूर्व में विस्तृत था। किन्तु वर्तमान मे उसका क्या
उपयोग?’ ऐसा कहने वालों के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ।
1. दिल्ली में आज की तिथि में पर्यटक अक्षरधाम देखने के लिए अधिक संख्या में पहुचते हैं। उसे
बनाने के लिए 7 हजार शिल्पी 5 वर्ष तक काम करते रहे। उनमें आधुनिक शिक्षा प्राप्त कोई नहीं था।उन
भवनों और मन्दिरों की आयु भी आधुनिक भवनों से अधिक है। सुन्दरता, भव्यता और विशालता में भी उनका
कोई सानी नहीं हैं। उस निर्माण में लोहा, सीमेन्ट (वज्रचूर्ण) बालु और गिट्टी का उपयोग नहीं हुआ है। संगमरमर
में पत्थरों से बने उस निर्माण में जोडने वाला तत्व (binding force) क्या है, यह जानने का विषय है। क्या
हमारा यह परम्परागत भवन निर्माण शास्त्रा आज के स्थापत्य अभियन्ता (सिविल इंजीनियर) को सिखाना नहीं
चाहिए?
2. भारत में आधुनिक विज्ञान एवं संस्कृत दोनों को जाननेवालों की संख्या अत्यन्त सीमित है। उनमें
एक है डॉ.सी.एस.आर प्रभु। वें छंजपवदंस प्दवितउंजपबे में सहायक महाप्रबन्धक हैं। उन्होंने भास्कराचार्य द्वारा
लिखित ‘ यन्त्रासर्वस्व ’ नामके ग्रन्थ का अú रहे ‘विमान शास्त्रा’ का अध्ययन प्रारम्भ किया और पाया की
विमानों के निर्माण हेतु उपयोग किये जानेवाले धातुओं का विवरण कुछ श्लोकों में संग्रहित है। उन धातुओं के
निर्माण के प्रयत्न के फलस्वरूप उन्होंने 5 नये मिश्रधातु बनाये जो वर्तमान विज्ञान जगत को ज्ञात नहीं हैं। उनमें
से कुछ के यू.एस.पेटन्ट भी उन्हें प्राप्त हैं। उन मिश्र धातुओं में से एक का भार तो अल्युमीनियम से भी हल्का
है। यदि उस मिश्र धातु से विमान बनाया जायेगा तो स्वाभाविक उसका भार कम रहेगा और गति अधिक।
3. नागपुर स्थित नीरी नामकी (NEERI-National Environmental Engineering Research Institute)
केन्द्र सरकार की प्रयोगशाला पर्यावरण पर कार्य करती है। वहाँ के वैज्ञानिकों की एक टोली ने पानी की शुद्धता
पर एक प्रकल्प हात में लिया। उस टोली में उन्होंने एक स्थानीय आयुर्वेदिक वैद्य को जोडा। उस वैद्य ने उन्हें
92 वी सदी के ‘चिन्तामणि’ नामके ग्रन्थ से 6 श्लोक निकालकर दिये जिनमें पानी के शुद्धीकरण के उपाय
बताये हैं। एक श्लोक में लवंग के द्वारा पानी का शुद्धीकरण कैसे होगा इसका विवरण दिया है। उस विवरण
पर काम करने के कारण उन वैज्ञानिकों की टोली ने एक रसायन बनाने मे सफलता प्राप्त की, जिसकी एक
बूंद एक लीटर पानी को शुद्ध करती है।उस रसायन का यू.एस.पेटन्ट भी भारत सरकार के नामसे प्राप्त किया
गया है।
अर्थव्यवस्था-
आर्थिक समृद्धि का कारक जैसे विज्ञान है वैसे ही दूसरा कारण है अर्थव्यवस्था। आज विश्व को केवल
दो अर्थव्यवस्था की धाराओं की जानकारी है। 1. सामाजवादी अर्थव्यवस्था और 2. बाजारवादी अर्थव्यवस्था।
अभी यह माना जाने लगा है कि साम्यवादी तत्वज्ञान आर्थिक समृद्धि लाने मे असफल रहा है। इसलिए
साम्यवादी देश अब बाजारवाद की चपेट में आ गये है। भारत ने मिश्र अर्थव्यवस्था, समाजवादी अर्थव्यवस्था
और बाजारवादी अर्थव्यवस्था को आजमाकर देखा है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे देश को दो पाटों में
बाँट दिया है। एक है- सम्पन्न एवं मध्यम वर्ग का जो बाजारवाद से लाभान्वित है और दूसरा
निर्धनों का। अर्थव्यवस्था की सफलता का मापदण्ड तो यही हो सकता है कि उचित अर्थप्रबन्धन के कारणगरीबी कम हो। गरीबों की संख्या का सही आकलन करने के अबतक कई प्रयास भारत में हुए। उनमें अन्तिम
प्रयास अर्जुन सेन गुप्ता एवं तेंडुलकर समिति का रहा। प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त इन समितियों की रपट ने
बाजारवाद के समर्थकों को निराशा ही कियाकारण निर्धनता की व्याख्याओं को मनोनुकूल बनाकर भी गरीबों
की संख्या कम नहीं आँकी गयी।
हमने अपनी अर्थव्यवस्था को शेष विश्व से जोड दिया है। किन्तु गरीबों की संख्या के आकलन के लिए
निर्धारित वैश्विक मानदण्डों को हम नहीं मानते। फिर भी जनसंख्या के ३७.६% गरीब भारत में रहते हैं ऐसा
सरकार मानती हैं। इन्हें २० रूपये या उससे कम की आय पर प्रतिदिन गुजारा करता पड़ता है। विश्व बैंक का
गरीबी का मापदण्ड देढ डॉलर है। यदि उस कसौटी पर भारत को कसा जायेगा तो भारत की ८० % जनसंख्या
गरीबी रेखा के नीचे आ जायेगी। क्या इस संख्या के आधारपर भारत को समृद्ध देश कहा जा सकेगा?
बाजारवाद के समर्थक यह कहते आये हैं कि यदि समाज का एक हिस्सा सम्पन्न होगा तो उसके कारण अन्य
भी लाभाविन्त होंगे। इसे ‘ट्रिकल डाऊन थेयरी’ कहा गया। हमारे देश मे बाजारवाद का प्रारम्भ 1990 में हुआ।
अब 20 वर्ष गुजर चुके हैं। ‘ट्रिकल डाऊन थेयरी कहीं कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है।

इतिहासकालीन भारत-
इतिहास काल में भारत की समृद्धि का वर्णन सभी विदेशी यात्रिायों ने अपने-अपने यात्रााव‘तान्तों में
किया है। इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। यहाँ के समृद्धि के आकर्षण से ही भारत पर
आक्रमणों का दौर निरन्तर चलता रहा। प्रारम्भ ग्रीकों ने किया। तत्पश्चात् हूण, शक, कुशाण,मुगल, तुर्क,
पठाण, पोर्तुगीज, फ्रेंच एवं अन्त में अंग्रजों ने भारत की लूट जारी रखी।यदि हम निर्धन होते तो भला कोई
क्यों हम पर आक्रमण करता? विकसित देशों का एक संगठन है व्म्ब्क्। उस सúठन ने ई.स. शून्य से ईस. 2000 वर्ष तक का आर्थिक इतिहास लिखकर जालपुटपर (ूमइेपजम) डाला है। उसमें केवल 22 देशों का
आर्थिक इतिहास सम्मिलित है, जो इस पूरे काल तक जीवित रहें। उन 22 देशों में ई.स शून्य से ई.स.2000
इस कालखण्ड में सर्वाधिक सकल घरेलू उत्पाद भारत का ही रहा है। इ.स. 1700 में भारत का सकल घरेलु
उत्पाद विश्व की तुलना में 40ः था, जो आज किसी भी समृद्ध देश का नहीं है। इसका सीधा अर्थ यहीं
निकलता है कि हमारे देश में एक सुदृढ अर्थ व्यवस्था रही होगी, जिसका वर्णन तत्कालीन साहित्य में हमें स्थान
स्थान पर मिलता है। उस व्यवस्था का परिशीलन कर यदि उसके कालानुरूप अंशो के आधार पर युगनुकूल
नयी व्यवस्था हम बनाते हैं तो उसमें केवल भारत का ही नहीं तो विश्व का कल्याण निहित है।

संस्कृत ही उपाय-
उपर्युक्त उदाहरणों से यह निश्चित रीति से कहा जा सकता है कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए छोड़ी
धरोहर वर्तमान युग मे भी उतनी ही उपयोगी है। उस ज्ञान सागर से ज्ञान रूपी अमृत निकालकर हम तो ज्ञान
क्षेत्रा में अग्रणी राष्ट्र बन सकते हैं। पश्चिम का ज्ञान हमने सीख ही लिया है। हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह
द्वारा नियुक्त ज्ञान आयोग ने अपने रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि ‘जिस समाज या मानव समूह के पास ज्ञान
होगा वहीं विकास करेगा’। यदि यह बात सच है तो हम विश्व में सबसे विकसित समाज बनकर उभरेंगे। इस
मार्ग में जो एकमात्रा बाधा है वह है संस्कृत भाषा। जितना शीघ्र हम उस भाषा को सीख पायेंगे उतना ही शीघ्र
हम विकास पथ के अग्रणी राष्ट्र बनेंगे। अतः आनेवाले वर्षों में हमारे प्रगति का मूल मन्त्रा होगा
पठतु संस्कृतम्! लिखतु संस्कृतम्!! वदतु संस्कृतम्!!!
श्रीश देवपुजारी
झण्डेवाला माता मन्दिर गली
न. दिल्ली - 110055
shreeshdeopujari@yahoo.co.in

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