ईमानदारी का पाठ
देश
के प्रथम
राष्ट्रपति
राजेंद्र
प्रसाद सादगी
और ईमानदारी
के लिए शुरू से
विख्यात थे।
स्वतंत्रता
आंदोलन के
दौरान
गांधीजी ने
उन्हें
एक बार वह इलाहाबाद के लीडर प्रेस गए। उस समय लीडर प्रेस के संपादक सी वाई चिंतामणि थे। उनकी राजेंद्र बाबू से गहरी दोस्ती थी। जब राजेंद्र बाबू प्रेस पहुंचे तो गेट पर बैठे चपरासी ने कहा, 'इस समय आप उनसे नहीं मिल सकते। उनके पास कई नेता बैठे हुए है। आप को इंतजार करना पड़ेगा।'राजेंद्र बाबू ने अपना कार्ड उसे देते हुए कहा, 'ठीक है, यह उन्हें दे दो। जब वह खाली हो जाएंगे तो मुझे बुला लेंगे।' चपरासी ने कार्ड चिंतामणि की मेज पर रख दिया और चला आया। उस समय ठंड ज्यादा थी और हल्की बूंदाबादी भी हो रही थी। राजेंद्र बाबू भीग गए थे। कार्यालय के बाहर कुछ मजदूर अंगीठी जला कर आग ताप रहे थे। राजेंद बाबू भी वहीं बैठ गए।
काफी देर के बाद चिंतामणि की नजर उस कार्ड पर पड़ी। वह नंगे पांव दौड़ते हुए बाहर आए और उन्होंने चपरासी से पूछा, 'यह कार्ड देने वाले सज्जन कहां हैं?' चपरासी ने कहा, 'वहां बैठ कर आग ताप रहे हैं। मैंने उन्हें रोक लिया था।' चिंतामणि को देख कर राजेंद्र बाबू भी आ गए। दोनों गले मिले। चिंतामणि ने कहा, 'आज इसकी गलती से आपको बहुत तकलीफ हुई।' फिर वह चपरासी को डांटते हुए बोले, 'तुमने राजेंद बाबू को रोका क्यों?' राजेंद्र बाबू का नाम सुनते ही चपरासी कांपने लगा और माफी मांगते हुए बोला, 'मैंने आप को पहचाना नहीं साहब। मुझे माफ कर दें।' राजेंद्र बाबू बोले, 'तुमने कोई गलती की ही नहीं तो माफी क्यों मांगते हो। तुमने अपनी ड्यूटी ईमानदारी से निभाई है और आगे भी इसी तरह निभाते रहना।'
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