जन जागृति की परम्परा को निभाना होगा।

हमारे देश में जनजागृति को प्राचीन काल से महत्त्व प्रदान किया गया है। आद्य शंराचार्यजी द्वारा उत्प्रेरित - गिरी;
पुरी;, पर्वत; सागर, सरस्वती; आनन्द इत्यादि, दस प्रकार के सन्यासियों के धडों को यह अनिवार्य था कि वें एक स्थान पर तीन दिन से अधिक न रूकें। सतत भ्रमण और मार्गदर्शन यहीं उनका जीवन था। समाज को उचित मार्ग पर अग्रेसर करने के लिए ही सन्यासी अपना कुल, जाति, ग्राम, जनपद छोडकर यह कार्य करते थे। चातुर्मास के प्रारम्भिक दो महिने वर्षा काल होने के कारण पैदल प्रवास के लिए असुविधाजनक होते थे, अतः केवल उस समय उन्हें एक स्थान पर रूकने की अनुमति थी। भिक्षा माँगकर ही भोजन करना होता था। वह भी केवल पाँच घरों में। और एक बार। स्वामी विवेकानन्दजी ने भी अपने जीवन के कुछ काल तक यह व्रत निभाया। उनके पूर्व सन्त रामदास स्वामी ने बारह वर्षों तक भारत का भ्रमण किया था और मुगलों के अत्याचारों से पीडित समाज का दर्शन किया था। इस भ्रमण काल के अनुभवों के कारण ही उन्हें युवकों को सúठित करने की प्रेरणा मिली। बल साधना में जुटे उन युवकों ने ही शिवाजी को स्वराज्य स्थापित करने में सहायता की। भ्रमणकाल में जनताजनार्दन से सन्यासियों की सीधी वार्ता होती थी। उनकी लघु से लेकर व्यापक समस्या तक को वें ध्यान से सुनते थे एवं देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप उपयोगी समाधान बताते थे। शाश्वत सुख को पाने का मार्ग भी बताते थे। आधुनिक काल में यह काम प्रवचनकारों ने सम्हाल लिया है। वे स्वयं भ्रमण नहीं करते। एक स्थान पर रूककर एक सप्ताह तक किसी ग्रन्थ पर प्रवचन करते हुए समाज का उद्बोधन करते हैं। जनता उन्हें सुनने उस स्थान पर एकत्रित होती है। प्रवचनकार सन्यासी नहीं होते। अतः समाज की निःस्वार्थ सेवा नहीं कर पाते। प्रत्येक प्रवचन से धन सम्पादन करते हैं। उन्हें व्यास कहा जाता है। महाराष्ट्र में नारदीय कीर्तन परम्परा प्रचलित है। इस परम्परा में कीर्तनकार मन्दिर - मन्दिर जाकर प्रवचन करते हैं। कीर्तन खड़े - खड़े किया जाता है और प्रवचन बैठे - बैठे। कीर्तन में संगीत, अभिनय, अध्यात्म, कहानी, चुटकुले, भजन इन सबका प्रयोग होता है। इसीलिए कीर्तन रोचक हो जाता है। आजकल प्रवचन में भी वाद्यवृन्द, भजन,चटकुलों का सहारा लिया जाने लगा है। ग्रामों में धर्मग्रन्थों को सामुहिक रूप से पढ़ने की परम्परा है। विशेषकर श्रावण और पुरूषोत्तम मास में इसकी प्रधानता है। शहरों में पथनाटय, प्रदर्शिनि, जनसभा, गोष्ठियाँ, सम्मेलनों के माध्यम से जनता को अपने विचारों से अवगत कराने का प्रयास होता है। किन्तु जनजागरण का सबसे सशक्त माध्यम बना है- दूरदर्शन और समाचारपत्रा। वर्तमान काल में तकनीकी की सहाय्यता से एक समय में अधिक लोगों तक पहुँचा जाने लगा है। उदाहरण के लिए रामदेवबाबा और आस्था दूरसंचारवाहिनी का नाम लिया जा सकता है। किन्तु जो जनजागरण में जुडे हैं उनके व्यक्तिगत जीवन और उपदेशों में अन्तर होने के कारण उनका सीमित प्रभाव ही देखने को मिल रहा है। उदाहरण के लिए पत्राकारिता को ही लें। समाज के अभिन्न अंग के नाते समाजगत दोषों को पत्राकारों में भी देखा जा सकता है। पत्राकार और सम्पादक वृत्तपत्रा के स्वामी की इच्छा या वृत्तपत्रा की व्यापारिक नीति के अनुरूप अपनी लेखनी चलाते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भी यही हाल है। जिनकी लेखनी और जिनके शब्दों को खरीदा जा सके उनकी वाणी और शब्दों का प्रभाव क्या रहेगा? अतः राजनेताओं के बाद सर्वाधिक अविश्वसनीय संचार माध्यम बनते जा रहे हैं। झी. टी. व्ही. के. स्वामी श्री. सुभाष गोयल एकल विद्यालय योजना के अध्यक्ष बनने के पश्चात् विविध बैठकों में वृत्त सुनने लगे। उनके ध्यान में आया कि वें जिस तरह के सेवा कार्यों की कल्पना कर रह थे उससे अधिक प्रभावी और अधिक सख्‍या में से विचार परिवार के संगठन समाज सेवा कर रहे हैं। स×चार क्षेत्रा में रहने के कारण वें अनुभव कर ही रहे थे कि विचार परिवार के सम्बन्ध में नकारात्मक समाचार और टिप्पणियाँ करना यह स×चार माध्यमों का अभ्यास
है। स×चार माध्यम ही समाज को प्रभावित करने वाले सर्वाधिक प्रभावी माध्यम होने के कारण जो दूरदर्शन और समाचारपत्रा सर्वाधिक देखते और पढते हैं ऐसे शिक्षित समाज में इस नकारात्मकता का सर्वाधिक प्रभाव होगा ऐसा उन्होंने सोचा। प्रत्यक्ष आकलन के लिए उन्होंने भारत के प्रमुख शहरों के एक हजार बुद्धिजीवियों का सर्वेक्षण किया। परिणाम नेत्रा उद्घाटित करनेवाला था। नब्बे प्रतिशत से अधिक बुद्धिजीवी विचार के निकट पायें गये।
स×चारमाध्यमों के प्रभाव के बारे में उपर्युक्त अतिशयोक्ति-पूर्ण धारणा सû के अधिकारियों के मन में भी थी।
अतः इसवी सन दो हजार में सौ ने सोचा कि समाज से प्रत्यक्ष मिलकर इन धारणाओं को बदला जाय। ‘राष्ट्र जागरण
अभियान’ इस नाम से यह सम्पर्क अभियान चला। साथ - साथ समाज सर्वेक्षण भी। आजतक इतना व्यापक सर्वेक्षण विश्व में किसी ने किया या कराया नहीं होगा। अभियान में भारत के छः लाख ग्रामों में से चार लाख दस हजार ग्रामों तक के स्वयंसेवक पहुँचे। नगरों की सभी बस्तियों में उनका जाना हुआ। समाज के सभी लोगों से - महिला, पुरूष, शिक्षित,अशिक्षित, धनी, गरीब, दलित, जनजातीय, सम्पर्क हुआ। सर्वेक्षण का परिणाम चौकानेवाला था। ९५» लोगों ने सûविचार के प्रति अनुकूलता प्रदर्शित की थी। इन दो उदाहरणों से यह ध्यान में आता है कि स×चारमाध्यमों के प्रभाव से प्रत्यक्ष जीवन का प्रभाव अधिक होता है। सû के स्वयंसेवक और प्रचारकों का समाज से नित्य सम्पर्क का अभ्यास होता है। अतः उनके जीवन को देखकर समाज धारणाएँ बनाता है, स×चारमाध्यमों के द्वारा नहीं। ऐसा ही सीमित मात्रा में समाज सम्पर्क जैन मुनि एवं आचार्य करते हैं। उनका जीवन अतीव कठिन किन्तु प्रेरणास्पद होता है।
जनजागरण में लगे हुए लोगों में अन्त में आते है राजनेता। उनकी बातों का तो समाज को शीघ्र विस्मरण हो जाता
है। निष्कर्ष है- जो जितना आचरण कर पाते हैं उन्हें उतना ही उपदेश देना चाहिए। अधिक बोलने या लिखने का कोई
विशेष परिणाम नहीं होता। कुछ लोग नकारात्मक मुद्दों को अधिक उठाते हैं। उनमें राजनेता और समाजसेवकों की भूमिका अधिक होती है। नकारात्मक बातों के बदले सकारात्मक अभियान चलाना समाजोपयोगी है। नकारात्मक अभियानों से समाज का विश्वास सभी संस्थाओं, व्यवस्थाओं से उठने लगता है। आजकल दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के समाचार ऐसे ही समाचारों से पटे रहते हैं। अतः पढनेवालों के मन में यही भाव जगता है कि इन प्रान्तों में अच्छाई अब बची ही नहीं है। किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं होती। भारत का भौगोलिक आकार और विविधताओं को देखते हुए उसमें सतत जनजागरण की प्रक्रिया को चलाना एक
बहुत ही दुरूह कार्य है। किसी व्यक्तिविशेष से यह संभव नहीं है। उसके लिए संगठित प्रयासों की आवश्यकता है। सûटित
प्रयासों के लिए लाखों लोगों की आवश्यकता होगी। वें भी ऐसे लाखों लोग जो स्वयं के जीवन में आचरण को प्रधानता
देते हों। ऐसा कर पाना आज तो केवल रा. स्व. सû और उसके विचार परिवार को ही सम्भव दिखता है। अतः यह
स्वाभाविक दायित्त्व निभाने के लिए स्वयंसेवकों को अपने आचरण पर अधिकाधिक ध्यान देना होगा और उनके आचरण
में जितने सिद्धान्त उतरेंगे उतनी मात्रा में उन्हें समाज में मुखर होना होगा।
श्रीश देवपुजारी
झण्डेवाला माता मन्दिर गली, नई दिल्‍ली

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