भाजपा में बदलाव के संकेत
जैसा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ चाहता था, भाजपा की शल्य चिकित्सा शीघ्र ही होती दिख रही है। लोकसभा चुनावों में उम्मीदों के विपरीत मिली करारी हार के बाद पार्टी के भीतर का कलह पूरी तरह उभर कर सामने आ गया था। बौखलाए नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का अभियान छेड़ चुके थे और हार की जिम्मेदारी डालने के लिए सिर व कांधे तलाश किए जा रहे थे। कभी अरुण जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाए जाने पर आपत्ति की गयी तो कभी पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर कमजोर नेतृत्व का आक्षेप लगाया गया। दबी जुबान में लालकृष्ण आडवानी की भी आलोचना हुई और जसवंत सिंह को तो राई जैसे मुद्दे का पहाड़ बनाकर पार्टी से ही निकाल दिया गया। अगर दिल्ली की सत्ता मिल जाती तो सब मिल-जुल कर प्रेम से रह लेते पर हारने के बाद जैसे पार्टी अंदर से बिखर ही गयी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा की इस दशा से बेहद दुखी थी, संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कभी प्रेसवार्ताओं के जरिए तो कभी आपसी चर्चाओं में यह चिंता प्रकट की कि भाजपा बीमार है और उसे इलाज की जरूरत है। भाजपा के दिग्गज सहजता से इस तथ्य को स्वीकार न कर पाए, किंतु सच को झुठला भी न पाए। इसलिए जब मोहन भागवत का पिछले दिनों यह बयान आया कि भाजपा का अगला अध्यक्ष दिल्ली से नहींहोगा तो इस कथन के कथ्य-अकथ्य को समझने में देर न लगी।
घोषित रूप से तो अब भी कुछ नहींकहा गया है पर माना जा रहा है कि श्री आडवानी की हाल ही में संघ प्रमुख से हुई चर्चा में यह तय हो गया है कि नरेंद्र मोदी ही अगले अध्यक्ष होंगे। हांलाकि चर्चा में भाजपा की चौकड़ी यानि सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार व वेंकैया नायडू में से किसी को अध्यक्ष बनाने की बात भी हुई, पर कहा जा रहा है कि इन चारों की सहमति भी मोदी को ही अध्यक्ष बनाने की है। गुजरात से निकलकर दिल्ली से भाजपा की कमान संभालने पर मोदी राजी हैं, पर वे आरएसएस की दखलंदाजी नहींचाहते हैं। जब वे उसी एजेंडे पर काम करेंगे जो आरएसएस का है तो भला संघ भी अनावश्यक दखल क्यों देगा। नरेंद्र मोदी को अध्यक्ष बनाने के दो-तीन कारण स्पष्ट दिखते हैं। पहला तो यह कि राष्ट्रीय अध्यक्ष जनाधार वाला नेता होना चाहिए। और तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बनने वाले मोदी के जनाधार को लेकर कोई शंका नहींहै। जनाधार किस तरह हासिल किया गया, इसे लेकर बहुत सवाल हो सकते हैं, पर वे उदारवादी सोच के लोगों के लिए हैं। संघ को उनके तरीके पर कोई आपत्ति नहींहै और इस वक्त भारत में सफलता के साथ-साथ संस्कृति व सभ्यता की जैसी परिभाषा चल पड़ी है, उसमें भी अधिकांश को कोई ऐतराज नहींकि मोदी अपना राज कैसे चलाते हैं।
आम चुनावों के दौरान भाजपा के भीतर उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने की बात चली तो इससे पहले गुजरात में प्रमुख उद्योगपतियों ने मोदी के नेतृत्व में देश का संचालन चाहा। अध्यक्ष बनने का दूसरा कारण यह है कि आज की राजनीति में धन प्रबंधन में जिस कौशल की आवश्यकता है, मोदी उसमें माहिर हैं। कहा जा सकता है कि उनके पास जैसा जनाधार है वैसा ही धनाधार भी है। तीसरा कारण है उनका आक्रामक तेवर। भाजपा की उखड़ती जड़ों को दोबारा मजबूती देने के लिए पार्टी और संघ दोनों शालीनता, सौम्यता व उदार चेहरे से ज्यादा आक्रामक शैली को तरजीह दे रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त मोदी की एक प्रमुख विशेषता है उनकी प्रशासनिक पकड़। गुजरात सरकार की सुदृढ़-सुगठित प्रशासनिक व्यवस्था का श्रेय नरेन्द्र मोदी के प्रबंधन को ही जाता है। उनकी छवि एक ईमानदार नेता की भी है, जिसने सत्ता का उपयोग अपनी जेब भरने के लिए नहींकिया। मोदी के इन गुणों को आधार मानकर बीमार भाजपा में प्राण फूंकने की जिम्मेदारी उन पर सौंपी जा सकती है। वे इस जिम्मेदारी को कब और कैसे स्वीकार करेंगे और किस तरह की शल्यक्रिया करेंगे इसे देखने की उत्सुकता सभी को है।
साभार - देशबंधु
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