संघ के राजगीर बैठक में पारित प्रस्ताव क्र० : ३

प्रस्ताव क्र० : ३
ग्राम बने देश के विकास का केन्द्र बिंदु
समृद्ध एवं स्वावलंबी भारत का स्वप्न देखने वाले सभी महापुरुषों ने इस बात पर बल दिया है कि भारत की आत्मा ग्राम में बसती है और भारत की वास्तविक प्रगति का मार्ग ग्राम की समृद्धि से होकर ही गुजरता है। महात्मा गाँधी ने हिंद स्वराज में तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय ने
एकात्म मानव दर्शन में इसी बात पर बल दिया है। इसी अवधारणा के आधार पर प्रखयात समाजसेवी नानाजी देशमुख ने चित्रकूट में समन्वित ग्रामीण विकास के सफल प्रयोग किये हैं। प्रखर चिंतक डा. राममनोहर लोहिया ने ग्राम विकास के आधार पर देश की खुशहाली की रूपरेखा खींची थी। गाँधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही कहा था कि केवल भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को सच्ची स्वतंत्रता व खुशहाली के लिए, आज नहीं तो कल, ग्राम को विकास का केन्द्र बिंदु बनाना होगा। इसीलिए उन्होंने खेती, गो-पालन व ग्रामीण उद्योगों के आधार पर गाँव-गाँव को गोकुल बनाने की कल्पना की थी।
आर्थिक मंदी व पर्यावरण के संकट ने सम्पूर्ण पाश्चात्य जीवन पद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। समाजवाद के पतन व पूंजीवाद के संकट ने मानव सभ्यता को नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर दिया है। मानव जाति को अपने भौतिक व आध्यात्मिक उन्नयन के लिए नए पथ की आवश्यकता अनुभव हो रही है। अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल का यह अटल विश्वास है कि
ऐसा पथ केवल भारत ही प्रशस्त कर सकता है। इस अटल विश्वास का आधार मनुष्य, समाज व प्रकृति के बीच सहकार व समन्वय की वह हिन्दू दृष्टि है जिसका सफल प्रयोग हजारों वर्षों से भारत के ग्राम जीवन में होता आया है। ऐसी समाज रचना के आधार पर ही भारत ने विश्व की सर्वाधिक उन्नत व सम्पन्न सभ्यता का दर्जा पाया था। आत्मनिर्भर गाँव इस समाज रचना की मूल इकाई थे व आवश्यकतानुसार उत्पादन इसकी विशेषता।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पाश्चात्य दृष्टि का ही अनुसरण करते हुए, अपनी मूल दृष्टि को भुलाकर सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) विकास दर के उस फार्मूले को आधार बनाया गया जो स्वयं पाश्चात्य जगत्‌ में ही अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। जी डी पी आधारित इस विकास दृष्टि के परिणामस्वरूप ग्रामीण भारत की निरंतर उपेक्षा हुई, कृषि अलाभकारी होती गई व दस्तकारी तथा ग्रामोद्योग नष्ट हो गए। गाँव में जीविकोपार्जन के साधन न होने तथा उचित स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, स्वच्छ पेयजल इत्यादि के अभाव एवं पाश्चात्य अपसभ्यता के आक्रमण के चलते गाँवों से शहरों की ओर लोगों का पलायन होता गया। गाँवों में उपलब्ध कच्चे माल के प्रसंस्करण व विपणन के साथ ग्रामीण उद्यमिता का तादात्म्य स्थापित कर इसे रोका जा सकता था। ऐसी व्यवस्था के अभाव में सम्पूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था विनाश के कगार पर पहुँच गई। कृषि क्षेत्र में निरंतर घटते निवेश तथा प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र हेतु घटती आवंटित राशि इसका स्पष्ट उदाहरण है। परिणामस्वरूप ग्रामीण जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं सहित कृषि अनुसंधान व विकास के लिए भी धन की उपलब्धता घटी है। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार गाँवों में उच्च गुणवत्ता तथा ग्रामोपयोगी शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएँ, रोजगार, सड क, विपणन व ग्रामोद्योग आदि की व्यवस्थाएँ सुनिश्चित करते हुए ऐसे आधुनिक प्रतिमान विकसित करे जो देश की अखंडता के साथ-साथ सामाजिक समरसता व पर्यावरण की रक्षा करते हुए देश की प्रगति में सहायक बन सकें।
कार्यकारी मंडल का स्पष्ट मत है कि गोवंश केन्द्रित, जैविक व प्राकृतिक कृषि आधारित तथा दस्तकारी व ग्रामोद्योगों द्वारा संवर्द्धित स्वावलंबी ग्राम ढाँचा ही भारत को धारणक्षम विकास प्रदान करते हुए उसे परम वैभव तक ले जा सकता है। अनेक प्रयोगों से इस बात के पर्याप्त संकेत मिले हैं कि जैविक कृषि से खाद्यान्न उत्पादकता में भी वृद्धि संभव है। अनेक उच्च प्रौद्योगिकी संस्थानों में भी पारम्परिक ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के साथ समन्वित कर ग्राम जीवन के स्तर को ऊँचा उठाने की दिशा में शोध चल रहे हैं। आज भौतिक विलासिता व लालच हमारे सामाजिक, पारिवारिक जीवन को छिन्न-भिन्न कर रहा है। सांस्कृतिक प्रदूषण का वातावरण इसका स्वाभाविक परिणाम है। सादगी व त्याग पर आधारित युगानुकूल ग्रामीण पुनर्रचना ही इसका विकल्प है। गाय हमें पास-पड़ोस के सम्पूर्ण परिवेश से जोड ती है। प्रकृति से तादात्म्य रखने वाली गोवंश आधारित ग्राम व्यवस्था न केवल कम पूँजी व यांत्रिकी के न्यून प्रयोग के कारण अधिक लाभकारी होगी, अपितु प्राकृतिक खाद व कीट नियंत्रकों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति में भी वृद्धि करने वाली होगी। गोबर गैस से वैकल्पिक ऊर्जा आपूर्ति संभव है। पंचगव्य (दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोबर) के औषधीय प्रयोगों तथा दूध व घी के उत्पादन से ग्रामवासियों को अपनी अर्थक्षमता बढाने का भी अवसर प्राप्त होगा। अधिकांश कृषकों के लिए हल या हल विहीन (प्राकृतिक) खेती अधिक लाभकारी होगी। इस प्रकार गाय ग्राम जीवन के संस्कार संवर्द्धन के साथ-साथ कृषि उत्पादकता का भी महत्वपूर्ण अंग है।
इस प्रकार की स्वावलंबी ग्राम व्यवस्था सम्पूर्ण आर्थिक व पर्यावरण के संकट का हल निकालने में सक्षम होगी। फसल चक्र, हरी खाद व जैविक खाद का प्रयोग, पारम्परिक जल स्रोतों जैसे-तालाब, कुएँ, बावड़ी आदि के पुनर्जीवन तथा समुचित प्रौद्योगिकी के प्रयोग को प्राथमिकता देकर ग्रामीण क्षमताओं का नवोन्मेष संभव है। ऊर्जा के प्रकृति सापेक्ष व विकेन्द्रित प्रयोग से जहाँ ऊर्जा संकट कम होगा, वहीं कार्बन उत्सर्जन की मात्रा भी कम होगी। संतों व धर्माचार्यों द्वारा आयोजित 'विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा' इस अपार संभावना के लिए राष्ट्रीय जागृति का एक अभिनव प्रयास है, जिसका यह कार्यकारी मंडल स्वागत करता है।
कार्यकारी मंडल सरकारों से आग्रह करता है कि वे लोक लुभावने नारों व योजनाओं के स्थान पर स्वावलंबी ग्राम आधारित अर्थरचना का खाका तैयार करें। कार्यकारी मंडल समाज का आवाहन करता है कि वह आत्महीनता की ग्रंथि त्याग कर समृद्ध भारत के निर्माण के लिए
'चलें ग्राम की ओर' संकल्प को चरितार्थ करे।

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