संघ के राजगीर बैठक में पारित प्रस्ताव क्र० : २

प्रस्ताव क्र० : २
पर्यावरण पर वैश्विक संकट एवं भारतीय दृष्टि
हजारों वर्षों से सन्तुलित रूप से चल रहे सृष्टिचक्र में पिछले कुछ दशकों में एकाएक भयावह असन्तुलन निर्माण हुआ है। दुनियाभर में बढ़ता हुआ भोगवाद, नैसर्गिक संसाधनों का अमर्यादित उपभोग के कारण बढ रहे जल संकट, वायु प्रदूषण, निरंतर घटते जंगल तथा जैव विविधता इत्यादि समस्याओं के चलते पर्यावरण के समक्ष उपस्थित विकराल वैश्विक संकट पर अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल गंभीर चिंता व्यक्त करता है।
अस्तित्व के लिये संघर्ष तथा प्रकृति का शोषण करनेवाली व्यक्तिकेन्द्रित पश्चिमी जीवनदृष्टि के कारण ही सृष्टिचक्र में इस प्रकार का असंतुलन निर्माण हुआ है। इसी जीवन दृष्टि के चलते आज विश्व के कुल कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन में से आधे से ज्यादा हिस्सा मात्र १६ प्रतिशत जनसंखया वाले विकसित देशों का है। मात्र ४ प्रतिशत जनसंखया का अमरीका इसमें २५ प्रतिशत co2 उत्सर्जन का जिम्मेदार है। इसके कारण जहाँ २०वीं शताब्दी में वैश्विक तापमान की वृद्धि का प्रमाण 0.7ºF से 1.4ºF तक रही; २१वीं शताब्दी के अन्त तक यह वृद्धि का प्रमाण 2.5ºF से लेकर 10ºF तक बढ ने की सम्भावना है। बढे हुए वैश्विक तापमान (Global Warming) के परिणामस्वरूप जैव विविधता का संहार, ओजोन की परत का क्षरण, बढ ती हुई बीमारियाँ, ध्रुवीय बर्फ के पिघलने से समुद्र का जलस्तर 0.2-1.5 मीटर तक बढ ने के परिणामस्वरूप बडे भूभाग का जलमग्न हो जाना आदि कई संकट के बादल दुनिया पर छाये हुए हैं।
हमारे देश में भी दोषपूर्ण जीवनशैली एवं व्यवहार के कारण पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ रहा है। आज भारत में आवश्यक ३३ प्रतिशत जंगल के स्थान पर लगभग २० प्रतिशत जंगल हैं। भारत में ८० प्रतिशत बीमारियाँ दूषित जल एवं अस्वच्छता के कारण फैल रही है क्योंकि देश के
७५ प्रतिशत लोग अशुद्ध जल पीने के लिये बाध्य हैं। हर वर्ष देश के आधे जिले अकाल या बाढ से प्रभावित रहते हैं। लगातार गिरता जलस्तर, बढ ता गर्मी का प्रकोप, रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अनिर्बध उपयोग से हजारों एकड भूमि बंजर एवं विषाक्त हो जाना खतरे की घंटी है। प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं उद्योगों द्वारा हो रहे जल प्रदूषण से बढ ती बीमारियाँ तथा उपयोग करो और फेंक दो (Use & Throw) की पद्धति के कारण प्लास्टिक तथा थर्मोकोल जैसे दूषित कचरे में सतत्‌ वृद्धि का कोई समाधान नजर नहीं आ रहा है।
पर्यावरण की इन सारी वैश्विक समस्याओं की जड जीवन के प्रति देखने के दृष्टिकोण में है। जब तक खण्डित, यांत्रिक वैश्विक दृष्टि में परिवर्तन नहीं होगा तब तक समाधान असंभव है। इस हेतु आवश्यकता है सर्वंकष, एकात्म वैश्विक दृष्टि की तथा ''तेन त्यक्तेन भुंजीथाः'' (त्यागपूर्ण भोग) के आधार पर व्यवहार की। अ. भा. कार्यकारी मण्डल का यह सुनिश्चित मत है कि जीव-मनुष्य व पर्यावरण में एकात्मभाव, पंचमहाभूतों (पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश) के प्रति कृतज्ञता का भाव तथा पृथ्वी का माता के रूप में स्वीकार, जल, जमीन, जंगल एवं जानवर का संरक्षण करने वाली हिन्दू जीवनदृष्टि से ही पर्यावरण एवं सृष्टिचक्र का संतुलन बनाए रखा जा सकता है। वैश्विक स्तर पर भी इस बात का स्वीकार हो रहा है।
अ. भा. का. मं. का मानना है कि समाज एवम्‌ नीतिनिर्धारकों द्वारा सकारात्मक पहल भी इसमें आवश्यक है। संविधान के अनुच्छेद ४८A व ५१A ने भी पर्यावरण, जलस्रोत व वन्यजीवों के संरक्षण-संवर्धन को शासन व नागरिकों का कर्तव्य कहकर इन्हें अनिवार्य बताया है। इस संदर्भ में यह भी एक वास्तविकता है कि जल के प्रमुख स्रोत नदी का प्रवाह बाधित होने से कई प्रकार की पर्यावरण की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
अपनी परम्परा में नदीपूजा, वृक्षपूजा जैसी पद्धतियाँ प्रकृति के प्रति एकात्मभाव के व्यवहारिक उदाहरण है। राजस्थान में ३७० साल पूर्व वृक्ष काटने के विरोध में इमरती देवी सहित ३६३ लोगों का बलिदान इसका ज्वलंत साक्ष्य है। स्वतंत्र भारत का चिपको आंदोलन तथा वर्तमान में कर्नाटक में चल रहा वृक्ष-लक्ष आंदोलन जैसे पर्यावरण रक्षा के सभी प्रयास अनुकरणीय है।
अ. भा. कार्यकारी मण्डल केन्द्र व प्रदेश सरकारों से अनुरोध करता है कि
१) देश के जल संसाधन स्रोतों की सुरक्षा एवं संवर्द्धन हेतु समुचित प्रबंध किए जाएँ।
२) जैविक खाद के उपयोग से जैविक व प्राकृतिक खेती को पुनर्स्थापित करके भूमि संरक्षण किया जाय।
३) हिमालय तथा अन्य पर्वतमालाओं की पर्यावरण रक्षा हेतु विशेष योजना बने।
४) विभिन्न प्रकार की वैकल्पिक ऊर्जा व्यवस्था का विकास किया जाय।
५) वायु एवं जल को दूषित करनेवाले उद्योगों पर कड़ाई से कदम उठाए जाएँ तथा गंगा व यमुना जैसी सभी नदियों में व्याप्त प्रदूषण को समाप्त करने के समुचित प्रयास हो।
६) गंगा नदी पर किसी भी योजना का क्रियान्वयन करते समय यह सुनिश्चित किया जाय कि उसका प्रवाह अविरल रहे।
इसी प्रकार पर्यावरण एवं विकास सम्बन्धी सभी विषयों पर सामुदायिक सहभागिता तथा सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को ध्यान में रखते हुए समुचित नीति बने। साथ ही पर्यावरण संबंधी किसी भी प्रकार की अन्यायपूर्ण एवं अनुचित अन्तर्राष्ट्रीय संधि का स्वीकार न करे।
कार्यकारी मण्डल स्वयंसेवकों सहित देश के नागरिकों को आवाहन करता है कि इस दिशा में केवल शासन पर निर्भर न रहते हुए, जल सुरक्षा, प्लास्टिक, बिजली आदि चीजों का न्यूनतम उपयोग, वृक्षारोपण जैसे प्रयासों को स्वयंस्फूर्ति से बढ़ावा देने के साथ ही अपने रीतिरिवाजों से किसी भी प्रकार का प्रदूषण और पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न न हो ऐसी सावधानी रखें। देश में पर्यावरण रक्षा हेतु चल रहे सभी सकारात्मक प्रयासों का सहयोग कर स्वयं के आचरण द्वारा इस जनजागरण में अपना योगदान दें।


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