भाजपा की मुस्लिम उत्सव मूर्तियां

आलोक तोमर
भारतीय जनता पार्टी अच्छी तरह जानती है कि देश के मुस्लिमों ने अभी तक उसे अच्छी तरह स्वीकार नहीं किया है। नाम मात्र का समर्थन कभी कभी गिनी चुनी सीटों पर मिल जाता है और इसके बावजूद सबसे ज्यादा श्रेय की बात यह है कि पार्टी के सैयद शाहनवाज हुसैन ने देश की एकमात्र घोषित मुस्लिम सीट किशनगंज को एक बार भाजपा के हवाले कर दिया था। इसके बाद शाहनवाज भागलपुर से भाजपा के टिकट पर जीत कर आए जहां अच्छी खासी मुस्लिम आबादी है।
एक जमाना था जब स्वर्गीय सिकंदर बख्त और आरिफ बेग जैसे नेता भाजपा में थे जिन पर मुस्लिम समुदाय विश्वास करता था। आरिफ बेग तो पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी के बाद सबसे ओजस्वी वक्ता भी थे। भाजपा जानती है कि देश के लगभग चौदह प्रतिशत मुस्लिमों का विश्वास जीते बगैर वह देश में संपूर्ण बहुमत की कल्पना भी नहीं कर सकती। यह विश्वास प्राप्त करने के लिए उसे राम मंदिर, धारा 370 और मुस्लिमों के लिए बनाई गई विशेष कानूनी धाराओं का विरोध करना होगा और यह वह कभी नहीं करेगी। भाजपा का अस्तित्व की कुल मिला कर धारा 370 पर टिका है और उसकी ताकत बड़ा हिस्सा मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम से आता है।
इसीलिए भारतीय जनता पार्टी को मुस्लिम नेताओं की हमेशा से तलाश रही है। दिक्कत यह है कि भाजपा में जो मुस्लिम नेता शामिल हैं उन्हें उत्सव मूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं माना जाता। कुछ कसूर उनका भी है। सैयद शाहनवाज हुसैन ठीक-ठाक भाषण कर लेते हैं लेकिन उनकी वाचाल शैली की तुलना अटल बिहारी वाजपेयी से नहीं की जा सकती जो वे करवाना चाहते हैं। शाहनवाज सरेआम कहते हैं कि भाजपा में सबसे ज्यादा लोकप्रिय वक्ता वे ही हैं।
भाजपा कांग्रेस पर हमेशा मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है। उसके कई नेता सवाल कर चुके हैं कि जब हज के लिए अनुदान दिया जा सकता है तो अमरनाथ यात्रा के लिए पैसे क्यों वसूले जाते हैं? यह बात अलग है कि हमेशा उसके घोषणा पत्र में उर्दू, मदरसों और अजमेर और दिल्ली की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाहों के विकास और संरक्षण की बात होती है। अपने अटल बिहारी वाजपेयी तो बाकायदा इफ्तार पार्टियां आयोजित करते रहे हैं।
मगर भाजपा का अनिश्चय इसी बात से समझ में आ जाता है कि 1996 से 2004 तक भाजपा ने लोकसभा चुनाव में चार या पांच से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारे। साढ़े तीन सौ से चार सौ सीटे लडऩे वाली पार्टी अगर चार मुसलमान से ज्यादा नहीं जुटा पाती तो इसमें मतदाता का कसूर क्या है? शाहनवाज को फटाफट पहले राज्यमंत्री और फिर कैबिनेट मंत्री बना कर भाजपा का चमकदार मुस्लिम चेहरा बनाने की कोशिश की गई मगर अपनी बाल सुलभ वाचालता से शाहनवाज ने ज्यादातर निराश ही किया। गुजरात और मध्य प्रदेश में तो अच्छा खासा असर होने के बावजूद विधानसभा में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया गया। वसुंधरा राजे की सरकार में एक मुस्लिम विधायक मंत्री था लेकिन वे भी पार्टी की नहीं अपनी ताकत पर जीत कर आए थे।
भारतीय जनता पार्टी के पास सबसे ताकतवर, अनुभवी और समझदार मुस्लिम नेता मुख्तार अब्बास नकवी है जो हाल ही में रामपुर लोकसभा चुनाव भले ही हार गए हो, अपने बारे में कोई गुमान उन्हें नहीं हैं और उत्तराखंड में भाजपा का चुनावोत्तर संकट अगर किसी ने खत्म करवाया तो वे नकवी ही थे। यह सही है कि नकवी संघ के स्वयं सेवक नहीं हैं लेकिन इसमें उनका कसूर नहीं है। संघ ने कभी मुस्लिम लोगों को अपने संगठन में शामिल ही नहीं किया। नकवी पहली बार इलाहबाद से 33 साल की उम्र में विधायक का चुनाव लड़े थे, भाजपा की ताकत साथ नहीं थी फिर भी इंदिरा गांधी को हराने वाले राजनारायण को उन्होंने जबरदस्त टक्कर दी थी। इसके बाद अयोध्या में वे निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़े। मऊ विधानसभा क्षेत्र से 1991 में उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के इम्तियाज अहमद ने सिर्फ 133 वोटों से हराया था और चुनाव के नतीजों के बाद खुद कल्पनाथ राय ने धर्मनिरपेक्षपता की दुहाई देते हुए कहा था कि नकवी के खिलाफ मैंने हजारों फर्जी वोट डलवाए थे और मुझे हैरत है कि नकवी इतने कम वोटों से कैसे हारे?
नकवी इस समय भाजपा के उपाध्यक्ष है और उनका दावा है कि भाजपा की राजनीति मंडल और कमंडल से जल्दी ही मुक्त होने वाली है और इसके बाद पूरा देश पार्टी को स्वीकार करेगा। वे यह भी मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी को पूरे देश में धर्मनिरपेक्ष माना जाता रहा है और लाल कृष्ण आडवाणी की बातों को सही संदर्भों में नहीं समझा जा रहा। मगर नकवी भाजपा के सबसे बड़े हीरो नरेंद्र मोदी का क्या करेंगे जिनके सिर दंगों में हजारों मुसलमानों को मरने देने का कलंक अब भी बाकी है। भाजपा ने कई मुस्लिम संगठनों को राजनैतिक कारणों से मदद ली और एक जमाना तो ऐसा था जब जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी मुस्लिमों से यह अपील कर बैठे थे कि भारतीय जनता पार्टी को एक मौका दिया जाना चाहिए।
भाजपा ने मुस्लिम हितों की निगरानी करने वाले संगठनों पर भरोसे के लोग नियुक्त किए। हज कमेटी, वक्फ काउंसिल, अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वित्त विकास निगम के मुखिया पद पर समझदार माने जाने वाले लोग नियुक्त किए गए। इन नियुक्तियों में भी नकवी का हाथ था। मगर इसका क्या किया जाए कि काजी मोहम्मद मियां मजहरी, तनवीर अहमद और डॉक्टर उस्मानी जैसे विद्वानों को भी भाजपा के दुश्मन अज्ञात करार दे देते है। मोहम्मद फजल को महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य का राज्यपाल बनाया गया और उन्होंने मुंबा देवी के मंदिर में पूजा की और अपने हिंदू पुरखों का पिंडदान तो किया ही नर्मदा और नासिक के कुंभ में विधि विधान से स्नान किया। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने मुस्लिम समुदाय से उनके बहिष्कार का ऐलान भी करवा दिया। अजीब बात यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी के घर इफ्तार खाने वाले मौलाना कभी उदार बन जाते हैं और कभी बर्बर।
लेकिन यहां एक सवाल किया जा सकता हैं। भारतीय जनता पार्टी अगर मुस्लिमों का विश्वास नहीं जीत पा रही या मुस्लिमों को समझाया जा रहा है कि यह एक शत्रु संगठन है तो इसका प्रतिरोध और राजनैतिक प्रतिकार क्यों नहीं किया जाता? इसके लिए संघ परिवार को सबसे पहले उदार होना पड़ेगा और मुस्लिम स्वयं सेवकों की शाखाएं लगानी होगी। संघ परिवार को अपना संघर्ष हिंदू राष्ट्र से बढ़ा कर अखंड भारत तक ले जाना पड़ेगा । बीस प्रतिशत मुस्लिमों वाली लखनऊ सीट से वाजपेयी ऐसे ही जीत कर नहीं आते रहे। अब यही सवाल मुख्तार अब्बास नकवी से पूछना है मगर उनको पार्टी का सबसे व्यस्त उपाध्यक्ष होने से फुर्सत मिले तो।
साभार - प्रातः काल . कॉम

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