राजगीर में दफन है संघ परिवार की टीस |


राजगीर [मधुरेश/प्रशांत]। राजगीर में संघ परिवार [राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ] की 'टीस' दफन है। मसला किसी कौमी विवाद में हार-जीत का नहीं है। कसक इस बात की है कि संघी अपने पुरोधा पुरुष डा.केशव बलिराम हेडगेवार का स्मृति चिह्न संजो उसे संघ धरोहर का स्वरूप न दे सके।

राजगीर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा.हेडगेवार को 'नई जिंदगी' दी। इस तथ्य को वे अपनी जुबान दे चुके है। उन्होंने यहां ढाई महीना रहकर स्वास्थ्य लाभ किया। वैभारगिरि के सात झरने के नियमित सेवन से स्वयं को दोबारा काम करने लायक बनाया। इन ढाई महीनों में राजगीर, संघ परिवार की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों या संस्मरणों का साक्षी रहा।

जिस घर में डा.हेडगेवार रहे, संघ परिवार ने उसे अपने धरोहर का रूप देने की ठानी। मकान खरीदने के मसले पर मकान मालिक से तीन-तीन बार बात हुई। लेकिन स्वयंसेवक सिर्फ दाम लगाते रहे और घर दूसरे के हाथ बिक गया। स्मृति स्थल-चिह्न या प्रतीकों का आग्रही संघ परिवार डा.हेडगेवार स्मारक नहीं बना पाया।

यह मकान धर्मशाला रोड में है। जिस कमरे में ठहर आरएसएस संस्थापक ने 'नया जीवन' पाया था, आजकल उसमें हार्डवेयर का गोदाम है। कभी सड़क के सामने वाले कमरे में डा. हेडगेवार की बैठकी लगती थी। अब इसमें तिलकुट-लाई बिकती है। बगल में मेंहदी ब्यूटी पार्लर व मुस्कान हैडीक्राफ्टं्स सेंटर। एकाध कमरों में मूर्तियों के भी गोदाम है। इससे जुड़ी 'टीस' को जीने वाली संघी जमात की कमी नहीं है।

यदुनंदन प्रसाद [नगर भाजपा अध्यक्ष] को बेहद अफसोस है कि यह मकान स्मारक में तब्दील न हो सका। संघ के आदेश पर प्रसाद ने ही इस मकान को खरीदने के लिए मकान मालिक से बात की थी। पहली बार कीमत 35 हजार रुपये लगी। दूसरी बार में 65 हजार। तीसरी बार में मकान मालिक ने कहा- 'डेढ़ लाख रुपये में बेचूंगा।' अंतराल पर हुई इन बातों ने कई वर्ष लिये। किंतु संघ परिवार मकान नहीं खरीद सका। श्री प्रसाद इसके लिए संघ परिवार के कुछ लोगों को जिम्मेदार बताते है।

यह मकान कई हाथों में बिका। मूल रूप से यह रामपाल जैन का था। डा.हेडगेवार के वक्त वही मालिक थे। बाद में यह दीपक कुमार का हुआ। और आजकल इसके मालिक ज्ञानचंद लाल जैन है। कुछ भाग डा.दिनेश के भी बताये जाते है। श्री जैन के अनुसार 'मैंने यह मकान 1988 में खरीदा और किराये पर लगा दिया।' बातचीत के दौरान वे स्वाभाविक तौर पर एक मकान मालिक के रूप में दिखे, जिसका मकसद इस घर से अधिकाधिक कमाई है। हमसे बातचीत में उनका चेहरा अनावश्यक दबाव पेश कर रहा था।

दरअसल उन्हे यह बात नहीं सुहाती है कि कोई डा.हेडगेवार के स्मृति चिह्न की तलाश में उनके व्यक्तिगत मकान में आये। वे इस आवाजाही से परेशान रहे है। मगर यह बंद होने का नाम भी नहीं लेती। चाहे शुकदेव जी हों, बाबा साहब आप्टे, मोरोपंत पिंगले, शेषाद्री जी, पंडित भोलानाथ झा, कृष्णबल्लभ नारायण सिंह, ओमप्रकाश गर्ग .., जो भी इधर आता है, 'घर' का 'दर्शन' करके ही लौटता है। अघोषित तौर पर यह संघ का 'पूजनीय स्थल' बना हुआ है। घर के मुआयने के दौरान शशिभूषण उपाध्याय जोर-जोर से बोलने लगे-'जलती रहेगी संघ की ज्योति।' शशिभूषण, उन जगदीश उपाध्याय के पौत्र है, जिन्हे डा.हेडगेवार ने राजगीर प्रवास के दौरान स्वयंसेवक बनाया था। शशिभूषण की जुबान संघ की 'टीस' खुलेआम करती है।

डा.हेडगेवार यहां 1940 में आए थे। पृष्ठभूमि यही है कि वे अपना अंतिम समय नजदीक मान चुके थे। उन्होंने कहा है-'मेरी तबियत आजकल बिल्कुल ठीक नहीं रहती है। .. संपूर्ण शरीर रोग जर्जर होने के कारण इच्छानुसार प्रयत्‍‌न करने की भी क्षमता नहीं बची है।' मनोहर लाल पंडा के परिवार की बही में उनकी हस्तलिपि दर्ज है। यह परिवार इसे अपनी बड़ी थाती मानता है। संघ परिवार के जो भी दिग्गज यहां आते है, इस हस्तलिपि को जरूर देखते है।

ओगले के आग्रह पर आए थे डा.हेडगेवार

गोपालराव ओगले 'महाराष्ट्र' के संपादक थे। पक्षाघात से पीड़ित हो गये। डा. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हे राजगीर जाने की सलाह दी। वे आये, गरम पानी के झरने से स्वस्थ हो लौटे। ओगले, डा.हेडगेवार के मित्र थे। उनकी बीमारी जानते थे। उन्हीं के आग्रह पर डा. हेडगेवार 31 जनवरी 1940 को आप्पा जी जोशी, बाबा इंदूरकर, तात्या तेलंग व बाबाजी कल्याणी के साथ नागपुर से राजगीर को रवाना हुए।

प्रतिदिन साढ़े चार बजे उठ टमटम पर बैठ डा.हेडगेवार व आप्पाजी गरम पानी के झरने में स्नान करने जाते थे। वे पीठ को सेंकते थे। बाद में शाम में भी स्नान करने लगे। तीन मार्च को राजगीर में शाखा स्थापित की। 9 मार्च को गये, फिर 18 मार्च को आए। वे 15 अप्रैल तक रहे। बऊआ जी की मोटर आने से उन्हे सहूलियत हुई। वर्ष प्रतिपदा का उत्सव उनकी उपस्थिति में मनाया गया।

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