ऐसे थे परम पूजनीय श्री गुरुजी


गोवर्धनलाल गुप्ता

ऐसा मकान किस काम का?
एक कार्यकर्ता ने नया मकान बनाया और उस मकान को देखने का आग्रह किया। गुरुजी ने उसका आग्रह स्वीकार किया। उसने शोरूम यानी जूते रखने की जगह, ड्रेसिंग रूम, स्टोर रूम, किचन, लेट्रींग बाथरूम आदि दिखाए और ड्राइंग रूम में नाश्ता सजाकर बोला - नाश्ता ग्रहण करें। गुरुजी ने पूछा अनेक रूम के साथ जूते रखने का रूम भी बनाया है पर जिस जगन्नियंता ने तुझे बनाया उस ईश्वरा रूम भी तो कहीं दिखाई नहीं देता। जिस घर में ईश्वर का वास न हो उस घर में अब मैं एक मिनट भी नहीं रुक सकता और ऐसा कहकर गुरुजी वहाँ से चले आए।

स्वाद स्नेह का था
एक बड़े कार्यक्रम से लौटकर रेलवे स्टेशन पर गुरुजी व उनके आठ-दस साथी प्रतीक्षारत थे। ट्रेन आने में एक घंटा शेष था कि एक साधारण सा कार्यकर्ता सा उन्हें अपने घर चाय पिलाने का आग्रह करने लगा। उसका घर थोड़ी ही दूरी पर था। साथियों की इच्छा तो नहीं थी परंतु गुरुजी ने उसका आतिथ्‍य स्वीकार कर लिया और उसकी साधारण झोपड़ी में खटिया पर जाकर बैठ गए। दूध कम था इसलिए चाय काली व कड़वापन लिए हुए थी। गुरुजी ने बड़े प्रेम से पीकर उसकी तारीफ भी की। रास्ते में मित्रों ने पूछा आपने ऐसी चाय की तारीफ क्यों की। गुरुजी बोले स्वाद चाय का नहीं स्नेह का था। यदि उसे न कहते तो उसका दिल टूट जाता और अपना काम दिलों को तोड़ना नहीं जोड़ना है। मित्रों को अपनी भूल समझ में आ गई थी।
मेरी क्या जरूरत!
इंदौर में एक बैठक का समापन समारोह था, सभी कार्यकर्ता आ चुके थे। गीत चल रहा था। जैसे ही परम पूजनीय श्री गुरुजी ने परिसर में प्रवेश किया तो क्या देखते हैं कि वहाँ डॉक्टर जी के साथ गुरुजी का चित्र भी लगा था। अपना चित्र देखते ही बोले अच्छा आप यहाँ पहले से ही विद्यमान हैं तो अब मेरी क्या आवश्यकता और उल्टे पाँव लौट गए। कार्यकर्ताओं को गलती समझ में आई और गुरुजी का चित्र हटाया। तब गुरुजी आए और बोले - अब ठीक है कहकर मंच पर विराजमान हो गए।

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