नववर्ष का सच : लक्ष्मण भावसिंहका

वर्ष 2009 समाप्त हो रहा है और वर्ष 2010 प्रारंभ होने वाला है। कहने के लिए नया वर्ष आने वाला है और देश का समृद्ध वर्ग विषेषकर मीडिया बीते वर्ष की समीक्षा व आने वाले वर्ष का स्वागत करने में जुट गए है। वर्ष में एक बार पूरे वर्ष की समीक्षा करनी ही चाहिए, यह जरूरी भी है, परंतु स्वयं को प्रगतिशील और वैज्ञानिक कहने वाले लोगों तथा देश को जाग्रत रखने का दम भरने वाले मीडिया को कम से कम यह अवश्य सोचना चाहिए था कि वह समय कौन सा हो? उसे यह अवश्य सोचना चाहिए कि क्या वास्तव में यह नया वर्ष है? क्या इसका इतना अधिक प्रचार किया जाना चाहिए?
दुर्भाग्य यह है कि पूरा देश एक भेंड़चाल में फंस गया है और एक सर्वथा अवैज्ञानिक, निरर्थक व भारत की परिस्थितियों के एकदम विपरीत कालगणना के नववर्ष को अपनाने की भोंडी सी कोशिश कर रहा है। इसके पीछे पूरे विश्व का बाजार लगा हुआ है। लेकिन यह मामला इतना भर ही नहीं है, वास्तव में इस नववर्ष के हावी होने के पीछे एक और कारण है और वह कारण है अंग्रेज व अंग्रेजियत के प्रति हमारी गुलाम मानसिकता। यह हमारी गुलाम मानसिकता ही है कि स्वयं को पढ़ा-लिखा और शिक्षित दिखाने के लिए हमें अंग्रेजी भाषा व परंपराएं अपनानी पड़ती है। इसलिए इस नववर्ष को मनाने के तरीके भी भारतीय नहीं हैं। रातभर पार्टी और शोर शराबा करना, रात के बारह बजे नए वर्ष का स्वागत करना आदि कहीं से भी हमारी परंपरा के अनुकूल नहीं हैं। भारत में हम सूर्य के उदय होने से दिन का प्रारंभ मानते हैं न कि रात के बारह बजने से।

बहरहाल, बात नववर्ष की हो रही थी। भारत में जब आधे से अधिक हिस्से में शीत लहर से लोग कांप रहे होते हैं, तब हमारे देश के अतिसाधनसंपन्न लोग पूर्णत: वातावनुकूलित पांचसितारा होटलों में शराब और सुंदरियों के साथ नववर्ष की खुशियां मना रहे होते हैं। यह वह वर्ग है जो देष की बढ़ती विकास दर का सर्वाधिक लाभ उठा रहा है और देष के आम जन से जिसका कोई वास्ता नहीं है। दुर्भाग्यवश आमजन के हित की बात उठाने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर लेकर घूमने वाले पत्रकार भी आमजन के साथ नहीं होते, बल्कि वे भी ऐसी ही पार्टियों का आनंद लेते हैं। इतना होने पर भी खुशी की बात यह है कि अपनी गुलाम मानसिकता का गर्व पालने वाले कथित संभ्रांत व अंग्रेजीदां वर्ग के अतिरिक्त पूरा भारत एक जनवरी की बजाय भारतीय तिथियों के अनुसार ही नववर्ष मनाता है। इतना ही नहीं, देश का आर्थिक और शैक्षणिक नववर्ष भी उसी समय प्रारंभ होता है, जनवरी में नहीं। वास्तव में कालगणना का यह तरीका सर्वाधिक अवैज्ञानिक और मूर्खता भरा है।

एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना का संबंध ईसा मसीह से माना जाता है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था। यह संवत रोमन संवत से निकला हुआ है। ईसा से 753 वर्ष पहले रोम नगर की स्थापना के समय रोमन संवत् प्रारम्भ हुआ जिसमे मात्रा दस माह व 304 दिन होते थे। इसके 53 साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे 355 दिनों का बना दिया। ईसा के जन्म से 46 वर्ष पहले जूलियस सीजर ने इसे 365 दिन का बना दिया। उस समय उन्हें लीप वर्ष की जानकारी नहीं थी और दिनों की उस गड़बड़ी को ठीक करने के लिए 1582 ई. में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि 04 अक्टूबर को इस वर्ष का 14 अक्टूबर समझा जाये।इस विवरण से पता चलता है कि इस गणना में कितनी वैज्ञानिकता है।

इस बारे में जनता को शिक्षित करने का काम मीडिया का था, परंतु मीडिया को इससे कोई मतलब नहीं है। उसे तो पेज थ्री की पार्टियों से मतलब है और वे तो 31 दिसंबर को ही होती हैं। वह तो फिल्म अभिनेताओं व अभिनेत्रियों की पसंद-नापसंद को जानने और लोगों को बताने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रहा है। रही बात आम आदमी की तो, वह तो समाज के उच्च वर्ग की ओर लालसा भरी नजरों से देख रहा है और उसकी नकल करने की मूर्खतापूर्ण व आत्मघाती कोशिश करने में जुटा हुआ है।

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