परिवर्तन की साहसिक पहल


संप्रग सरकार ने वोटिंग से अधिक मिले नैतिक बल के आधार पर कुछ कठोर निर्णय और नए कार्यक्रम शुरू किए हैं, जो उसके आत्मविश्वास तथा राष्ट्रबोध को दर्शाते हैं। इनका विरोध करना अनुचित होगा। सबसे बड़ी पहल नंदन नीलेकणि के नेतृत्व में नागरिकों के लिए विशिष्ट पहचान संख्या बनाने के संदर्भ में है। सरकार ने नंदन नीलेकणि जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति को अपना संस्थान छोड़कर सरकार के एक महत्वपूर्ण विभाग का प्रमुख बनने के लिए राजी कर लिया, यह उसके लिए उपलब्धि है। विशिष्ट पहचान संख्या बनने से अनेक समस्याओं का समाधान सुगम हो जाएगा। इस पद्धति से बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान करना भी आसान हो जाएगा। भारत भारतीयों के लिए है। यहा दुनिया भर के विदेशी षड्यंत्रकारी सक्रिय हो गए हैं। उनके विरुद्ध किसी भी कार्रवाई के लिए भारतीय और अभारतीय में फर्क करना जरूरी होता है। इसके अलावा परिवार, मतदान के अधिकार और रोजगार तथा उद्यमशीलता में इस प्रकार के पहचान पत्र योजनाकारों के लिए बहुत सहायक सिद्ध होते हैं। यद्यपि मुझे पूरा विश्वास है कि इस कदम का भी कुछ जले-भुने लोग संकीर्ण कारणों से विरोध करेंगे, लेकिन मेरा मानना है कि वैचारिक विरोधियों द्वारा राष्ट्रहित में कुछ अच्छे कदम उठाए जाएं तो उनका स्वागत भी किया जाना चाहिए। नंदन नीलेकणि इंफोसिस के प्रवर्तक नारायणमूर्ति के सहयोगी, शिष्य कहे जाते हैं। नारायणमूर्ति को मैं पिछले 10 वषरें से जानता हूं। मैं उनके साथ भारत-जापान विशिष्ट विभूति समूह का सदस्य था। हम कई बार एक साथ जापान गए। जब मुझे उनके व्यक्तिगत जीवन को जानने-समझने का मौका मिला तो मुझे यह पूरा विश्वास हो गया कि वे आधुनिक विज्ञान ऋषि हैं। उनका जीवन भी वैदिक काल की याद दिलाता है।
नंदन नीलेकणि का नारायण मूर्ति के साथ शिष्यवत संबंध होते हुए भी उनका उस सेक्युलर विचारधारा के प्रति झुकाव प्रतीत होता है जो हिंदुत्वनिष्ठों के लिए सामान्यत: स्वीकार्य नहीं रही है। इसके बावजूद मैं नंदन नीलेकणि के इस नवीन उपक्रम का हार्दिक स्वागत करना चाहूंगा और उन्हें सफलता के लिए शुभकामनाएं देना चाहूंगा, क्योंकि वह जो महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए इंफोसिस छोड़कर एक सरकारी विभाग का काम संभालने के लिए तैयार हुए हैं वह भारत के आगामी नागरिक-व्यवहार का स्वरूप बदल देगा और इससे भारतीय नागरिकों का सम्मान बढ़ेगा। इसी प्रकार के दो नए साहसी उपक्रम कपिल सिब्बल तथा शीला दीक्षित ने प्रारंभ किए हैं। हर नवीन परिवर्तन अतिसय विरोध को भी आमंत्रित करता है, यह ध्यान में रखना चाहिए। कपिल सिब्बल ने यह घोषित किया है कि 10वीं की बोर्ड की परीक्षा समाप्त कर केवल 12वीं की बोर्ड परीक्षा जारी रखने पर विचार करेंगे। यह बहुत बड़ा जोखिम भरा फैसला है। इसका निश्चय ही कुछ लोगों द्वारा विरोध किया जाएगा, लेकिन इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि 10वीं की बोर्ड परीक्षा ने बच्चों का बचपन छीन लिया और हर साल इस परीक्षा की निर्मम पद्धति के कारण 13 से 14 वर्ष के लड़के और लड़किया न सिर्फ आत्महत्याएं करते हैं, बल्कि जो कम अंक लेकर जीवित रहते हैं वे एक अपराधबोध से ग्रसित ग्लानि ओढ़े रहते हैं। 10वीं की परीक्षा जैसा अत्याचार दुनिया के किसी प्रगतिशील देश की शिक्षा पद्धति में देखने को नहीं मिलता। कपिल सिब्बल यदि कुछ ऐसा करेंगे जिससे शिक्षा जगत में विदेशी प्रभाव और दखल बढ़े तो उसके विरोध में जरूर खड़ा होना चाहिए, लेकिन अगर कुछ ऐसा करें जिससे देश के बच्चों का जीवन खुशहाल बने तो क्या हमें उनका केवल इसलिए विरोध करना चाहिए, क्योंकि वह काग्रेस पार्टी के हैं? पूरे देश में एक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम हो तो उससे राष्ट्रीयता ही बलवती होती है। क्या काग्रेस और भाजपा, दोनों से बड़ा हित भारत का नहीं है? क्या देश का सबसे बड़ा एवं महानतम हित करने की जिम्मेदारी सिर्फ एक ही दल के पास है?
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिल्ली विकास प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के अंतरगत लाने का प्रयास करके एक अभिनंदनीय कार्य किया है। राजग सरकार के समय भी इसकी माग उठी थी। दिल्ली पुलिस और दिल्ली विकास प्राधिकरण केंद्रीय सरकार के अंतरगत रहकर एक अजीबो-गरीब मामला बना रहे थे, जो केवल गलत काम करने वालों को सुख प्रदान कर रहा था। संप्रग सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भी जोखिम उठाने का साहस नहीं किया था, लेकिन इस बार वह आत्मविश्वास से लबालब है। इसलिए कुछ ऐसे कदम उठा सकती है जो काग्रेस में किन्हीं निहित स्वार्थी वगरें द्वारा विरोध के विषय बनें। शीला दीक्षित संभवत: उनकी परवाह नहीं करेंगी। उनकी परवाह करने की उन्हें जरूरत भी नहीं होगी। कुछ ऐसे कदम हैं जो युगांतरकारी सिद्ध हो सकते हैं। देश हमारे वैचारिक विरोधियों के हाथों में सुरक्षित हो सकता है, इसकी संभावनाएं भी हैं।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन में वैचारिक छुआछूत और सागठनिक शत्रुता का विरोध करते रहे। भारतीय नागरिक भारत के हित में किसी भी मंच से सक्रिय होते हैं तो उसका मात्र विरोध के कारण विरोध करना गलत प्रवृत्ति है। यह मानसिकता भारत में वामपंथी, इस्लामी तथा वैटिकन पंथियों द्वारा प्रसारित की गई। उनका एकमात्र निशाना हिंदुत्व आस्था अर्थात मूल भारतीय तत्वचिंतन के विरुद्ध कार्य करना है, लेकिन जैसा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने पिछले सप्ताह जम्मू विश्वविद्यालय में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा कि अंतत: वैश्विक शाति और सहअस्तित्व के लिए सभी को सनातन धर्म के पथ को अपनाना होगा, वही विभिन्न रूपों में सत्य सिद्ध होगा इसमें संदेह नहीं है।
[तरुण विजय: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]


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